आप क्यों लिखते हैं?
मेरे लेखन में मुझे विश्वास है अपने-आपको पहचानने के लिए, अपनी मुक्ति के लिए, खुद को संपन्न और बेहतर बनाने के लिए। साथ ही यदि हम लिखते हैं तो अपने आस-पास का संसार और पाठक वर्ग भी संपन्नतर और बेहतर बन सकेगा।
लिखते हुए ऊब नहीं होती क्या?
हां, लिखते हुए ऊब हो जाती है। प्रतिभा की कौंध का स्फुरण होता रहे तो आनंद आता है पर कई अवांतर कारणों से अनेक बार ऐसा होने लगता है। जब ऐसा होता है तो लेखन से विरक्ति होने लगती है।
लिखने से कुछ बदलता है क्या?
लिखने से वास्तव में परिवर्तन होता है। हमारी परंपरा में माना गया है कि सारा संसार ‘वाक्’ से उत्पन्न और परिवर्तित होता है। वाक् का ही सर्वश्रेष्ठ रूप साहित्य में है। यह बात जरूर है कि लेखन से जो परिवर्तन होता है वह उस समय न होकर दूरगामी व अंदरूनी स्तर पर होता है। जीवन की आपाधापी और भाग-दौड़ में साहित्य को उस समय भले ही न देखा जाता हो पर बाद में समाज में सार्थक व दूरगामी परिवर्तन करता है।
साहित्य परिवर्तन करता है या विवेकवान बनाता है?
साहित्य के दोनों ही पहलू है। साहित्य समाज के आधिभौतिक रूप में तो कोई खास परिवर्तन नहीं करता बल्कि भीतरी परिवर्तन करता है। पर उससे कहीं ज्यादा प्रभाव वह समाज को संस्कारित व विवेकवान बनाने में डालता है। हरेक अच्छी रचना समाज को विवेक देती ही है।
लेखक होना तकलीफदेह है?
इसमें दोनों ही बातें हैं। लेखक को भयंकर यंत्रणा और कष्ट से भी गुजरना होता है तो सृजन के अपार आनंद से भी। मां को जैसे संतान के जन्म देने पर जो सुख मिलता है, ठीक वैसे ही कवि का वात्सल्य रचना में होता है। दोनों से गुजरकर ही कोई बेहतर कवि बन सकता है। संस्कृत साहित्य में आनंद केवल सुख मात्र नहीं है वह दोनों का जटिल सम्मिश्रण और अनुभव है। काव्य में आनंद और यंत्रणा दोनों का गहरा अनुभव होता है।
साहित्य सामाजिक भूमिका का हिस्सा है या कॅरियर का?
कॅरियर के रूप में साहित्य लेखन सोचना बहुत मुश्किल है। मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा कि कॅरियर के रूप में लिखकर उसी के सहारे जीवन बिता सकेंगे। सामाजिक भूमिका तो दूसरी बात है, मूलत: अपने संतोष, परिष्कार और सुख-आनंद के लिए ही लिखना शुरू किया था। यह जरूर है कि लेखन के साथ सामाजिक भूमिका स्वत: बन ही जाती है।
क्या संस्कृत साहित्य लेखन का संसार उजड़ गया है?
यह जटिल प्रश्र है। यहां दो बातें हैं। पहली यह कि भारतीय भाषाओं में जो साहित्य लिखा जा रहा है, उसमें संस्कृत साहित्य ठहर नहीं पा रहा है। दूसरी यह कि संस्कृत में जो लिखा जा रहा है, उस पर लोगों का ध्यान कम जा रहा है, उसे पूरा सम्मान नहीं मिल पा रहा है। इन सबके बीच मुझे विश्वास है कि संस्कृत का समकालीन साहित्य भी उभर रहा है और अपनी पहचान बनाने की कोशिश भी कर रहा है। अभी केंद्रीय साहित्य अकादमी की पत्रिका ने ‘संस्कृत प्रतिभा’ भी ऐसी कोशिश की है।
समकालीन संस्कृत साहित्य में आप किन से प्रभावित हैं?
समकालीन संस्कृत कवियों में पंडित बच्चूलाल अवस्थी से मैं बहुत प्रभावित हूं। पर उनकी कविता में यह समस्या है कि उनकी कविता परिष्कृत, प्रौढ़ और इतनी समृद्ध है कि खुद संस्कृत के भीतर ही उनकी कविता को समझने वाले पाठक नहीं है। उन कविताओं का अनुवाद भी बहुत कठिन है। पर वे संस्कृत साहित्य के गौरवशाली विद्वान हैं। गुजरात के हर्षदेव माधव की संस्कृत कविताओं को भी मैं पसंद करता हूं।
संस्कृत कविता लिखने वाले युवाओं से क्या उम्मीद है?
यह उनके लिए जटिल चुनौती भरा समय है। इसलिए यह जरूरी है कि वे अपने पांव जमाने के लिए संस्कृत के प्राचीन काव्यों का स्वाध्याय निरंतर करते रहें ताकि उन्हें वहां से ऊर्जा प्राप्त होती रहे। भारतीय भाषाओं के लेखन में अपने आपको बनाए रखने के लिए प्राचीन साहित्य उन्हें भरपूर शक्ति देगा। यह स्वाध्याय छोडक़र जो इन दिनों लिखा जा रहा है वह अन्य भारतीय भाषाओं के अनुवाद या नकल जैसा लगने लगता है, ऐसा करने से बचे।
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