(ज्ञानपीठ पुरस्कृत पद्मभूषण आचार्य सत्यव्रत शास्त्री से शास्त्री कोसलेन्द्रदास की बातचीत)
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2015 में जयपुर के राजपुताना शेरेटन हॉटल में आचार्य सत्यव्रत शास्त्रीजी के साथ |
1. भारत में संस्कृत को सर्वाेच्च स्थान मिलना चाहिए था, वो अभी तक क्यों नहीं मिला?
ऐसा बिलकुल नहीं है। हमारे राष्ट्र के भाषायी स्वरूप में संस्कृत निर्विवाद रूप से सर्वाेच्च स्थान पर प्रतिष्ठित है। इसके दो कारण हैं-प्रथम तो यह कि संस्कृत विश्व की प्राचीनतम महनीय भाषा है। दूसरा यह है कि मात्र संस्कृत का साहित्य ही सर्वाधिक पुरातन है। भारत की सारी प्रादेशिक भाषाओं का प्रेरणास्रोत संस्कृत साहित्य है। हमारे देश की किसी भी अंचल की प्रादेशिक भाषा को ही ले लीजिये, उस भाषा के प्रारंभिक सारे लेखक संस्कृत के ही विद्वान् थे। यही कारण है कि भारत की किसी भी भाषा में लिखे साहित्य में संस्कृत का स्वर और पुट भरपूर मात्रा में है। उदाहरण के लिए हिंदी को लीजिये, हिंदी में जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारीसिंह ‘दिनकर’ आदि कवियों की रचनाएं संस्कृतनिष्ठ हैं। ‘कामायनी’ को बिना अच्छे-खासे संस्कृत ज्ञान के समझना संभव ही नहीं है। मैंने अनेक संस्कृत न जानने वाले हिंदी के विद्वानों को ’कामायनी’ पढ़ाई है क्योंकि संस्कृत में निबद्ध जटिल भारतीय दर्शन को जाने बगैर कामायनी समझ आ ही नहीं सकती। प्रादेशिक भाषाओं ने अपने कथानक-काव्य-उपन्यासों की थीम संस्कृत से ही ली है। रामायण, महाभारत तथा अन्य पौराणिक आख्यान सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य के मूल स्रोत रहे हैं, यह बात निर्विवाद रूप से सच्ची है।
2. क्या अब तक हिंदी के राष्ट्रभाषा नहीं बन पाने का नुकसान संस्कृत ने भी उठाया है?
नहीं, इसका कोई प्रभाव संस्कृत पर नहीं पड़ा। मेरा तो मानना यह है कि संस्कृत को ही हमारी राष्ट्रभाषा बनाना चाहिये था। आज हिंदी का जो विरोध हो रहा है, उसके पीछे एक तर्क है। लगता है कि उस तर्क को नकारा भी नहीं जा सकता। जहाँ तक हिंदी का संबंध है तो हिंदी किसी एक प्रदेश विशेष की भाषा नहीं है। देश का एक बहुत बड़ा भाग हिंदीभाषी है। हिंदी की बोलियाँ जरूर अनेक हैं पर हिंदी की खड़ी बोली का जो स्वरूप है, वह लगभग सर्वमान्य है। हिमाचल प्रदेश से लेकर बिहार होते हुये राजस्थान-मध्यप्रदेश तक का क्षेत्र हिंदी क्षेत्र है। संविधान ने इसी व्यापकता के कारण हिंदी को हमारी राष्ट्रभाषा बनाया। इससे दक्षिण भारत, पूर्वी भारत या पश्चिमी भारत के लोगों को लग रहा है कि हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों को इससे स्वाभाविक लाभ मिल रहा है। हिंदी भाषी क्षेत्र के लोगों की मातृभाषा हिंदी है और राष्ट्रभाषा भी हिंदी ही है। जबकि अन्य लोगों की राष्ट्रभाषा हिंदी नहीं है, अतः उन्हें हिंदी सीखनी पड़ती है। इसी विषय पर लोगों में टकराव आ रहा है। उस टकराव को तभी मिटाया जा सकता था जब संस्कृत राष्ट्रभाषा होती क्योंकि उस समय संस्कृत किसी की भी मातृभाषा नहीं थी। इस कारण संस्कृत सबको सीखनी पड़ती और यह विवाद होता ही नहीं, ठीक उसी तरह जिस तरह से हिब्रू भाषा के साथ हुआ। डाॅ. भीमराव अंबेडकर जैसे दूसरे कई विद्वानों ने संस्कृत को यह स्थान दिलवाने की भरसक कोषिष भी की थी। उनका मानना था कि देश को एकसूत्र में पिरोने का काम संस्कृत कर सकती है। लेकिन जिस समय यह निर्णय किया जाना चाहिए था, उस समय यह नहीं हो पाया। अब यदि हम संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने की बात करते हैं तो इसमें पर्याप्त कठिनाइयाँ आने की संभावना है। यहाँ तक की हिंदी क्षेत्र में ही इसका विरोध होने लगेगा। हाँ, हिंदीतर क्षेत्र के प्रांतों में जहाँ हिंदी का व्यवहार नहीं होता, उन लोगों को संस्कृत सीखने में कदाचित् आसानी हो सकती है, क्योंकि वहाँ की भाषा में संस्कृत की प्रचुर शब्दावली है। वैसे शब्दावली तो हिंदी में भी संस्कृत की ही है।
भारत में चार भाषा परिवार है, जिनका मुख्यरूप से व्यवहार हमारे यहाँ होता है। पहला आर्य भाषा परिवार (इन्डो आर्यन फैमिली), दूसरा द्रविड भाषा परिवार, तीसरा हिमालयी (तिब्बतो) भाषा परिवार और चैथा है आदिवासी (बीली, कोली, मुंडारी आदि) भाषा परिवार (ऑस्ट्रिक)। इनमें आर्य भाषा परिवार में हिंदी नहीं है। इनमें गुजराती, मराठी, बांग्ला और उडि़या जैसी अन्य भाषायें है। इन सभी भाषाओं और हिंदी में केवल अंतर इतना-सा है कि हिंदी में तद्भव शब्दों का प्रयोग है जबकि द्रविड़ परिवार की भाषा में तत्सम शब्दों का प्रयोग है। यह प्रयोग संस्कृत को इन भाषाओं के बहुत निकट ले जाता हैं, जैसे हिंदी में हम ‘नींद’ कहते हैं पर उन सभी भाषाओं में ‘निद्रा’ कहा जाता है। निद्रा संस्कृत का शुद्ध शब्द है, जो भारत की अनेक प्रादेशिक भाषाओं में यथावत् प्रयुक्त होता है। यदि द्रविड़ भाषाओं में संस्कृत शब्दों के प्रतिशत की बात करें तो मळयालम में लगभग 70 प्रतिशत शब्द संस्कृत के हैं। तेलगू में लगभग 60 प्रतिशत संस्कृत शब्द हैं। कन्नड़ व तमिळ में भी काफी शब्द संस्कृत के हैं। इस तरह से दक्षिण की लगभग सभी भाषाओं में प्रचुर मात्रा में संस्कृत के शब्द हैं। पूर्वी भारत की बात करें तो वहाँ की उडि़या, असमिया और बांग्ला में संस्कृत शब्दों की भरमार ही है। हमारे राष्ट्रगीत में मात्र क्रियापद में भेद है, शेष सारे संस्कृत के शब्द हैं। ‘वन्दे मातरम्’ में ही देखिए - ‘सुजलां-सुफलां-मलयजशीतलाम्, सस्यश्यामलां - मातरम्’ आदि सारे संस्कृत शब्द हैं जबकि एक तरह से इसे बांग्ला में माना जाता है। संस्कृत तो एक ऐसा सूत्र है जो सारे देश को एक भाषायी धरातल पर एकसाथ लाने में समर्थ है। अब संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रस्तुत करने में यदि कठिनाइयाँ भी हैं तो इतना हम कर ही सकते हैं कि इस भाषा को खूब प्रोत्साहित किया जाये। इस भाषा का प्रचलन बहुत अधिक हो। इससे यह होगा पूरे देश में तत्तत् भाषा-भाषी लोग अपने-आपको एक-दूसरे के निकट पायेंगे। पूरे देश में एक निकटता आयेगी और उस निकटता को लाने में एकमात्र संस्कृत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
3. संस्कृत को जब सांप्रदायिकता से जोडक़र देखा जाता है तो आपको कैसा लगता है?
नहीं, यह बात सर्वथा निराधार व निर्मूल है। मैं इसका पूरी तरह से खंडन करता हूँ। संस्कृत को किसी भी धर्म या संप्रदाय अथवा जाति विशेष से संबद्ध करना पूरी तरह से अनुचित है। संस्कृत के विकास में मुसलमानों व ईसाइयों का बहुत बड़ा योगदान है। 2005 में 7 खण्ड़ों में मेरा 2000 पृष्ठों का एक ग्रंथ आया था-‘डिस्कवरी ऑफ संस्कृत ट्रेजर्स’। थाईलैंड की राजकुमारी महाचक्री सिरिन्थौर्न ने इसका विमोचन किया। उस ग्रंथ में एक सुदीर्घ विवेचन इसी विषय पर हुआ है-‘कंट्रीब्यूशन ऑफ मुस्लिम्स टू संस्कृत’। इसी तरह से ‘क्रिश्चियन लिट्रेचर इन संस्कृत’ पर मैंने काम किया है। ईसाइयों ने तो श्रीमद्भगवद्गीता की तर्ज पर ‘ख्रीस्त गीता’ का प्रणयन किया है। पी.सी. देवसिआ ने 36 सर्गों में एक सुंदर व ललित महाकाव्य लिखा है ‘ख्रीस्तुभागवतम्’, जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसी तरह ‘यीशुचरितम्’, ‘यीशुमाहात्म्यम्’ और ‘यीशुसौरभम्’ जैसे अनेक ग्रंथ लिखे हैं। यहाँ तक की विष्णुसहस्रनामस्तोत्र की तरह ‘ख्रीस्तुसहस्रनामस्तोत्र’ भी लिखा गया। इसी तरह अनेक मुस्लिम विद्वान् हुए हैं। तिरुपति विश्वविद्यालय में एक मुस्लिम संस्कृत प्राध्यापक ने ‘माधवीयधातुवृत्तिः’ पर काम किया है। आज ही नहीं प्राचीन काल से ही मुस्लिम विद्वानों ने संस्कृत पर लेखनी चलायी है। अब्दुल रहीम खानखाना ने ‘खेटकौतुकम्’ व ‘रहीमकाव्यम्’ लिखा है, जो बड़ा सुप्रसिद्ध काव्य है। उस दौर में तो अनेक ऐसे भी ग्रंथ लिखे गये थे, जिनमें मणिप्रवाल शैली में आधे श्लोक को उर्दू, ब्रज, अवधी या भोजपुरी में और आधे को संस्कृत में लिखा गया है। एक प्रसिद्ध श्लोक है-
‘एकस्मिन् दिवसावसानसमये मैं था गया बाग में
काचित् तत्र कुरङ्गबालनयना गुल तोड़ती थी खड़ी।
तां दृष्ट्वा नवयौवनां शशिमुखीं मैं मोह में जा पड़ा
तत्सीदामि सदैव मोहजलधौ हा दिल गुजारे शुकर।।
ऐसी कई रचनायें उस दौर में लिखी गई। एक जगन्नाथ त्रिशूली नाम के पण्डित थे बादशाह शांहजहाँ और बेगम मुमताज के पास। त्रिशूली पण्डित जो भी रचना करते थे, अब्दुल रहीम खानखाना को सुनाया करते थे। एक बार उन्होंने एक पद्य लिखा और उसे सुनाने रहीम के पास पहुंचे। तब रहीम बडे औहदे के मंत्री थे। वह पद्य था-
प्राप्य चलान्नधिकारान् शत्रुषु मित्रेषु बन्धुवर्गेषु।
नापकृतं नोपकृतं नोपकृतं किं कृतं तेन?।।
अर्थात् बड़े पद अधिकार के पद होते हैं। ये पद बड़े चंचल हैं। (इस पद्य में यथासंख्य अलंकार है।) त्रिशूली कवि कह रहे हैं कि इस बड़े पद की प्राप्ति के बाद भी यदि तुमने शत्रुओं का अपकार व मित्रों और बन्धुओं का उपकार नहीं किया तो फिर तुमने किया क्या? रहीम ने उसे बड़े गौर से सुना और त्रिशूली से कहा कि आपने सुंदर पद्यरचना की है पर लगता है आप इसमें एक जगह मात्रा का प्रयोग करना भूल गये। त्रिशूली ने पूछा, कहाँ? रहीम ने कहा कि आपने जो ‘शत्रुषु नापकृतम्’ लिखा है, वहाँ भी ‘ना’ के स्थान पर ‘नो’ ही कर दीजिये ताकि ‘शत्रुषु नोपकृतम्’ हो जाये। शत्रुओं के प्रति भी अपकार कि अपेक्षा उपकार ही किया जाए। अर्थात् तीनों ही जगह ‘नोपकृतं नोपकृतं नोपकृतं किं कृतं तेन?’ कर दीजिये।
अभी भी अनेक मुस्लिम संस्कृत विद्वान् हैं, जो निरंतर काम कर रहे हैं। इसी तरह हिंदी के विकास में भी अनेक मुसलमानों के नाम हैं। हिंदुओं ने भी उर्दू में खूब लिखा हैं। अतः संस्कृत कभी भी किसी धर्म विशेष से जुड़ी हुई नहीं रही और न ही इसे जुडना चाहिये।
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राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के अतिथि गृह में श्री राजपालसिंह शेखावत (माननीय उद्योग मंत्री, राजस्थान सरकार) के साथ आचार्य सत्यव्रत शास्त्री जी |
4. संस्कृत को बढ़ाने के लिये जो प्रयास सरकार कर रही हैं उसमें क्या कुछ ओर किया जाना चाहिये?
संस्कृत के प्रचार-प्रसार के लिये मेरा सुझाव है कि इसमें संस्कृतज्ञों को आगे आना चाहिये। सारा कार्य सरकार पर ही नहीं छोड़ा जा सकता। सरकार आर्थिक सहायता या अन्य सुविधाएं देगी। पर आगे तो व्यक्ति और समाज को ही आना पड़ेगा। संस्कृत के प्रत्येक अध्यापक को संस्कृत अध्यापन को एक मिशन की तरह लेना चाहिये। यह बहुत बड़े दायित्व का काम होगा। साथ ही, संस्कृत की निःशुल्क कक्षाएं चालू हो। संस्कृत को जीवित रखना बेहद जरूरी है, यह हम सबका कर्तव्य है। हमें यह समझना चाहिये कि मेरा पुण्य है कि मुझे संस्कृत की सेवा करने का अवसर मिल रहा है। वेतनभोगी के रूप में संस्कृत को कभी नहीं लेना है। जीविका उपार्जन के लिये भी संस्कृत को नहीं लेना है क्योंकि जीविका उपार्जन तो ओर तरीके से भी हो सकता है। संस्कृत अध्यापक को चाहिये कि वह समाज के भीतर संस्कृत में रुचि रखने वाले लोगो को ढूंढे और उन तक संस्कृत को पहुँचाये। अनेक लोग संस्कृत सीखना चाहते हैं, चाहे वो धार्मिक भावना से सीखना चाहें या अन्य किसी रुचि से। देश-विदेश में लोगों में संस्कृत सीखने की एक ललक है। साथ में यह भी जरूरी है कि समाज के बीच संस्कृत के महत्त्व को बताया जाये। हम लोगों ने यदि अभी 5-7 वर्ष लगा दिये तो संस्कृत को बचाये रखने में ये काफी महत्त्वपूर्ण होंगे। संकट दिनों-दिन संस्कृत पर गहराता जा रहा है। ऐसे में अब समाज को यह बोध कराना होगा कि अभी का समय संस्कृत के जीवन-मरण का प्रष्न है, अतः सबको आगे आना ही होगा।
संस्कृत के पिछडऩे का एक बड़ा कारण यह भी है कि संस्कृत पढ़ाने वाले अध्यापक स्वयं ही अपने बच्चों को संस्कृत नहीं पढा़ते। आज अधिकांश संस्कृत विद्वान्, जिनकी जीविका संस्कृत से चलती है उनके बच्चे संस्कृत नहीं पढ़ते। संस्कृत की तरफदारी करने वालों के बच्चे अंगे्रजी स्कूलों में पढ़ते हैं। आज मैं स्वयं दोषी हूँ कि मैंने जो विद्याएं पिताजी (स्वर्गीय श्रीचारुदेव शास्त्री) से प्राप्त की थी, उसमें मेरे बच्चे दीक्षित नहीं हो पाए। संस्कृत जगत् में ऐसे 5 प्रतिशत से ज्यादा विद्वान् नहीं होंगे, जिनकी संतान संस्कृत पढ़ती होगी। क्या यही संस्कृत के प्रति हमारी प्रतिबद्धता और भक्ति है? इस प्ररिप्रेक्ष्य में जब संस्कृतज्ञों की ही संस्कृत के लिए प्रतिबद्धता नहीं हैं तो सामान्य जन को भला क्या लेना-देना? संस्कृत के विकास में यह एक यक्ष प्रष्न है, जिसका जवाब कोई नहीं देना चाहता! मेरा बार-बार इसी बात पर जोर है कि सबसे पहले जितना जल्दी हो सके संस्कृत को इस बीमारी से दूर हो जाना चाहिये। आज संस्कृत पढ़ाने वालों को खूब वेतन मिल रहा है पर नतीजे आपके सामने है।
5. आप मानते हैं कि आधुनिक दौर में संस्कृत में लोकप्रिय साहित्य और काव्य या अन्य किसी विधा में अच्छा न लिखे जाने के कारण संस्कृत के प्रचार-प्रसार में कठिनाई आ रही है?
बहुत अच्छा प्रष्न है यह पर मैं आपको बताना चाहता हूँ कि संस्कृत में प्रचुर मात्रा में बहुत अच्छा लिखा जा रहा है केवल इतनी बात है कि कतिपय विधाओं में बिल्कुल नहीं लिखा जा रहा। मैंने अभी-अभी सबसे पहले संस्कृत में डायरी प्रकाशित की है। यह संस्कृत साहित्य की शायद पहली डायरी है। संस्कृत साहित्य की स्थिति यह है कि कतिपय विधाओं में तो यह जबर्दस्त समृद्ध है पर कतिपय विधाओं में अत्यन्त दरिद्र। संस्कृत में काव्य, नाटक, टीका, टिप्पणी आदि सब तो बहुत हैं परंतु पत्र लेखन, डायरी या आत्मकथा इत्यादि का अत्यन्ताभाव (कहीं भी न होना) है। 2 वर्ष पहले मेरी पहली डायरी संस्कृत जगत् में आयी। मैंने उसका नाम रखा-‘दिने दिने याति मदीयजीवितम्’ अर्थात् प्रतिदिन मेरा जीवन जा रहा है। ऐसा नहीं है कि संस्कृत में डायरी या आत्मकथा लिखी नहीं जा सकती थी पर वहाँ तक विद्वानों की दृष्टि ही नहीं जा पायी। स्वतंत्रता संग्राम में एक शिखरस्थ सेनानी थे माधवश्री हरियानी। उन्होंने लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की जीवनी संस्कृत पद्यों में ‘यशोऽर्णवः’ नाम से 3 खण्ड़ों में लिखी थी। चाहते तो वे अपनी जीवनी भी लिख सकते थे पर उन्होंने नहीं लिखी। उस समय के स्वतंत्रता संग्राम की अनेक जानकारियाँ इसमें मिल जाती है पर वे स्वयं की जीवनी नहीं लिख पाये।
अभी थोड़े दिन में ही ‘भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति’ शीर्षक से मेरी आत्मकथा आने वाली है। मेरे जीवन में बहुत सी अनहोनी घटनाएं घटी। अतः कालिदास की इस पंक्ति में मैंने अपने-आपको पाया और यही शीर्षक मुझे अच्छा लगा। इसी प्रकार पत्र-साहित्य भी संस्कृत में नहीं के बराबर है। इस विधा में भी ‘पत्रकाव्यम्’ करके मेरा पहला संस्कृत में पत्र साहित्य काव्य दो खण्डों में आया था और दूसरा जयपुर के आचार्य नवलकिशोर शर्मा ‘कांकर’ का है।
6. अनेक देशों में रहने के बाद आप तमाम विदेशी भाषाओं में संस्कृत को कहाँ मानते हैं?
विदेशी भाषाओं में पहले हमें एक विभाजन करना होगा। एक विदेशी भाषा परिवार है दक्षिण-पूर्व एशिया और दूसरा है सुदूर-पूर्व तथा तीसरा यूरोप। जहाँ तक दक्षिण-पूर्व एशिया की भाषाएं हैं, उनमें प्रचुर शब्दावली संस्कृत की है। अभी मेरे संपादन में ही एक बृहद् ग्रंथ आया है-‘संस्कृत वॉकुबलेरी ऑफ साउथ-ईस्ट एशिया’। जबकि भारतीय भाषाओं में संस्कृत की शब्दावली पर काम होना अभी तक बाकी है। एक तरह से हमें पता ही नहीं है कि तेलगू या कन्नड़ या मळयालम और हरियाणी-पंजाबी-राजस्थानी में कितने शब्द संस्कृत के हैं? हम सुविधानुसार इन भाषाओं में संस्कृत शब्दों का प्रतिशत घटाते-बढ़ाते रहते हैं। वैज्ञानिक रूप से कितने शब्द संस्कृत के हैं और कितने देशज, यह काम अभी तक भारत में नहीं हुआ।
आश्चर्य तब होता है जब हम पाते हैं कि दक्षिण-पूर्व एशिया की भाषाओं में संस्कृत शब्द अच्छी तादाद में हैं। हाँ, मूल उच्चारण में जरूर थोड़ा-बहुत अंतर है ठीक वैसे ही है जैसे हमारे यहाँ ‘घट’ का ‘घड़ा’ बन गया। विदेशों में इतने सटीक संस्कृत शब्द हैं कि दक्षिण-पूर्व एशिया के बहुत से शब्दों को यदि देख लिया होता तो बहुत से शब्दों को घड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ती। ‘दक्षिण-पूर्व’ दिशावाची शब्द के लिये ही मैं बताता हूँ कि वहाँ इसके लिये ‘आख्नेय’ शब्द है। यदि थाई भाषा में दक्षिण-पूर्व कहना हो तो वे ‘आख्नेय’ कहेंगे। यह ‘आख्नेय’ संस्कृत के ‘आग्नेय’ शब्द से बना है। बैंकाक में 9 विश्वविद्यालय हैं जिनमें से 7 के नाम संस्कृत में हैं और दो राजाओं के नाम पर। एक विश्वविद्यालय का नाम है-धर्मशास्त्र विश्वविद्यालय। इस विश्वविद्यालय की एक बिल्डि़ंग का नाम है-साला अनेक प्रसंगू अर्थात् शाला अनेक कार्य हेतु (मल्टी पर्पज बिल्डिंग)। लाओ भाषा में ‘वन-वे’ के लिये ‘एक-दिशा मार्ग’ शब्द है। इसी तरह से हजारों शब्द संस्कृत के हैं। ‘वल्र्ड बैंक’ के लिये ‘लोक धनागार’ शब्द है। मलय भाषा में ‘व्योमयान’ के लिये ‘आकाशयान’ शब्द है। इण्डोनेशिया में हाथी को ‘गजो’ कहा जाता है। फोटो के लिये ‘रूप’ शब्द है। ‘गार्डन’ के लिये ‘उद्यान’ शब्द है। इस तरह से संस्कृत को आवश्यकता है एक शांत संघर्ष की ताकि भारत की यह अमूल्य निधि बची रहे।
शास्त्री कोसलेन्द्रदास
सहायक आचार्य - दर्शन शास्त्र
जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय
जयपुर 302026
मो. 9214316999
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