Monday, May 10, 2010

सियासत का शर्मनाक रिवाज

सियासत का शर्मनाक रिवाज

अजमेर दरगाह में हुए बम विस्फोट की कहानी धीरे-धीरे खुल रही है। 15 के लगभग आतंकियों की सूची बनाई गई है। तीन आतंकवादी पकड़े गए हैं, बाकी की तलाश जारी है। ये सभी अपराधी किसी बड़े हिंदू संगठन से जुडे हैं। यह कथा शपथ-पत्रों पर भरवा दी गई है। खबरिया चैनलों के कैमरों के सामने कुछ लोग चिर अशांत मुद्रा में यह बयान दे रहे हैं। कई चैनलों ने घंटेभर की स्पेशल बहस ही इस बात पर करवा डाली कि आतंकवादी हिंदू थे या हिंदू आतंकवादी हो सकते हैं? बहस की आधुनिक चमक के बीच दशाननी अट्टहास करते नेता आतंकवाद को धर्म का बाना पहनाकर मंदिर, जयपुर के हनुमान मंदिरों में बम धमाके व दरगाह बम कांड में भाई लोग धर्मो की निंदा कर वोट का खजाना खोज रहे हैं। क्या ऎसे मसलों पर मीडिया व श्वेत वस्त्रधारी नेताओं द्वारा हिंदू-अहिंदू की बात उठाना जरूरी है? क्या अच्छा-बुरा और झूठ-सच के मुद्दे आम भारतीय को समान रूप से आहत नहीं करने चाहिए। भले ही धर्म, मत या संप्रदाय कुछ भी हो। राजनीति का सत्यता व अखंडता से कभी रिश्ता रहा होगा, पर अब सब सीमाएं तोड़कर दशमुखी अट्टहास होता दिखता है। दरगाह बम कांड में देवेंद्र गुप्ता नाम का युवक क्या पकड़ा गया, नेताओं को बहस की नई जमीन मिल गई। सरकार और विपक्ष के बीच जिस तरह आरोप-प्रत्यारोप और भाषा का संचार हो रहा है, आखिर वह किस भद्रता की निशानी है। धर्म से कोसों दूर जाकर समुदाय विशेष के वोटों पर एकाघिकार जमाने का भला इससे बढिया और कौनसा मौका होगा? आतंकवाद किसी जाति, प्रांत, भाषा, राष्ट्र या धर्म में बंटा नहीं हो सकता। जो भी मानवता का चीरहरण करना चाहे, वही दुश्शासन आतंकवादी कहलाएगा। भगवान श्रीराम ने रावण का विनाश किया था, दशहरा इसीलिए मनाते हैं। राम की पहचान मर्यादा से है, मर्यादा की रक्षा के लिए। यह हम क्यों भूल जाते हैं? धर्म हमारा कोई भी हो, क्या जरूरी है कि दूसरे पर कीचड़ उछालकर ही हम अपनी कमीज ज्यादा स्वच्छ सिद्ध करें? गुजरात के गोधरा दंगे अब पुरानी बात है। याद कीजिए, गुजरात दंगों की जांच कर रहे एक विशेष जांच दल ने सर्वोच्च न्यायालय में बताया था कि पुलिस द्वारा हिंदू संगठनों पर लगाए गए कई आरोप पूरी तरह निराधार और काल्पनिक थे, गढ़े हुए थे। अखबारों में यह भी छपा था कि इसके लिए विशेष जांच दल ने अनेक स्वयंसेवी संगठनों और उनकी नेता तीस्ता सीतलवाड़ को दोषी माना है, जो अपने पति जावेद के साथ एक प्रचारात्मक पत्रिका निकालती हैं। हालांकि इसका तीस्ता ने जोरदार खंडन किया था। अगर वे निर्दोष हैं, तो उनकी बात का सम्मान करना चाहिए और अगर खबर सच है, तो सोचना चाहिए कि जो दिमाग वीभत्स और जुगुप्साजनक घटनाओं को गढ़ने और उन्हें सच बताकर दुनियाभर में भारत की संस्कृति को बदनाम करने की उद्दामता रखता हो, उसमें कितनी नफरत भरी होगी और क्यों? मालेगांव बम ब्लास्ट के दोषी के रूप में जेल में बंद साध्वी प्रज्ञा के खिलाफ इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी पुलिस अभी तक दोष निर्घारण नहीं कर पाई। दो-तीन बार नार्को टेस्ट व दंड-प्रलोभन सब-कुछ, मगर हासिल कुछ नहीं। देवेंद्र गुप्ता को गिरफ्तार करते ही पहला बयान देखिए। तार शायद प्रज्ञा से जुड़े हों, मगर पता नहीं। बयान में जल्दबाजी। अभी जब सुप्रीम कोर्ट ने नार्को टेस्ट के लिए मना किया, तो बात फंसी। दूसरी ओर घोषित दोषी अफजल गुरू की फांसी रोकने को रोज नया अड़ंगा। आतंकवाद के खात्मे में धर्म को बीच में नहीं लाएं, तो ही बात बन पाएगी। जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को भारत माता की सुरक्षा के लिए धरातल से ऊपर उठकर सोचना होगा। तीस्ता जैसी काल्पनिक कथाएं किसी हिंदू संगठन ने मुसलमानों के विरोध में गढ़कर प्रचारित की होतीं, तो उसका क्या नतीजा होता और झूठ पकड़े जाने पर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कितना बड़ा तूफान खड़ा किया जाता, लेकिन प्रज्ञा को लेकर सब खामोश हैं। कलम और आवाज प्रज्ञा के खिलाफ उठेगी, पर तीस्ता पर चुप रहेगी। क्या यह सरासर अन्याय नहीं है? इस तरह की दोगली नीति अपनाने वालों को क्या कहेंगे? दुनियाभर में एक समाज और उसके निवासियों की चरित्र हत्या कर दी जाए, उनके चेहरे पर कालिख पोत दी जाए और जब झूठ पकड़ा जाए, तो बस यही कहना है, ओह! गलती हो गई। उधर, हिंदू हितों की बात करने वाले तथाकथित राजनेता व धर्माचार्य खुद आपस में इतने बंटे व परस्पर विद्वेष से भरे हुए हैं कि एक-दूसरे को गिराने से ही उन्हें इतनी फुरसत कहां, जो भारत और भारतीयता पर हो रहे हमलों के सामने एकजुट हों। आतंकवाद की रेलमपेल के बीच जो जी में आया वही कह देना भद्रता नहीं है। जुगुप्साजनक व्यवहार है। सांस्कृतिक धरातल पर पूरे देश में ऎकांतिक राष्ट्र निष्ठा के साथ सेवा कार्य में संलग्न विभिन्न संगठनों का नाम लेकर राजनेता वोट तो बटोर लेंगे, पर धर्म आधारित आतंकवाद के विरोध से कोसों दूर चले जाएंगे। गांधी और दीनदयाल कभी धर्म में नहीं बंटे, फिर उन्हें मानने वाले क्यों धर्म विशेष की ही राजनीति करते हैं। व्यक्तिनहीं उनका बताया रास्ता महत्वपूर्ण है। अब देखिए, कांग्रेस व भाजपा के नेता देवेंद्र गुप्ता पर पूरी तरह से अलग-अलग बयान दे रहे हैं। कांग्रेस के नेता संघ की संस्कृति को बिना जाने ही उसे सिमी जैसे संगठन की पंक्ति में खड़ा करना चाहते हैं। भाजपा वाले पलटवार करते हुए कह रहे हैं, अपराधी की बात करो, उसके धर्म की नहीं। विडंबना देखिए ये लोग मुस्लिम बस्ती में जाते हैं, तो चंद्राकार टोपी पहनकर अस्सलाम वालेकुम कहते हैं। मंदिर दिखते ही रामनामी दुपट्टा ओढ़ लेते हैं। जाति तोड़क समरसता के सम्मेलन से पार्टी कार्यालय पहुंचते हैं, तो अपनी जाति की संख्या बताकर चुनाव लड़ते हैं। धर्म और जाति की राजनीति करते हैं, फिर जन-गण-मन जोर से गाकर धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र की लोकसभा व विधानसभा में बैठकर माननीय कहलाते हैं। यह सेक्यूलर चलन या नॉन सेक्यूलर भम्र तोड़ने के लिए वज्र प्रहार की प्रतीक्षा है। वे कौन होंगे, जो देश को सेक्यूलर और नॉन सेक्यूलर के विवाद और मंदिर-मस्जिद की राजनीति से परे उस स्तर पर ले जाना चाहेंगे, जहां देश के किसी सुदूर गांव में खेती का काम करना भी केंद्रीय सचिवालय में काम करने से ज्यादा सम्मानजनक हो। जहां ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी, प्रौद्योगिकी और भारतीय भाषाओं के अध्ययन पर ताला न लगा हो। जहां के शिक्षा केंद्र छात्रों को विदेश उन्मुखी होने से रोक सकें। जहां राजनीति में भारतीय होना ही पर्याप्त हो। हिंदू-मुस्लिम, सवर्ण-दलित, ब्राह्मण-राजपूत-जाट-मीणा या गुर्जर होना नहीं, पर ऎसा करने के लिए तैयार कौन है? हम तो पाप को भी धर्म में बांटकर वाहवाही लूटने की लाइन में खड़े हैं। राष्ट्र ही धर्म है। राष्ट्र को तोड़ने वाला कोई भी हो, वह सजा का बेशक हिस्सेदार है, मगर जो हिंदू और मुसलमान को तोड़ते हैं। अफजल की पैरवी करते हैं। कश्मीरी हिंदुओं पर हुए जिहादी हमलों को भुला देते हैं, वे ही हमारे भाग्यविधाता बनकर तिरंगे की शान को बांटने में लगे हैं, इसलिए नवीन विद्रोह के साथ उसके उपयोग की सिद्धता चाहिए। यह सिद्धता संसद मार्ग से नहीं, आनंदमठ की स्वयंसिद्ध वंदे मातरम् की गूंज से निकलेगी।

शास्त्री कोसलेंद्रदास

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