Saturday, July 17, 2010

पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ जिस तरीके का भेदभाव किया जा रहा है, उससे वे आर्थिक और सामाजिक हाशिए पर आ खड़े हुए हैं और सहमी हुई जिंदगी जी रहे हैं


बीते माह अमेरिका के एक दैनिक ने पाकिस्तानी हिंदुओं पर एक रपट छापी- पाकिस्तान में मर रहे अल्पसंख्यक। पश्चिमी टीकाकारों ने पाकिस्तान का विश्लेषण करते हुए अल्लाह, आर्मी और अमेरिका पर ही ज्यादा ध्यान केन्द्रित किया है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर उनका ध्यान नहीं गया। ये अल्पसंख्यक आर्थिक और सामाजिक हाशिए पर खड़े हैं और एक सहमी हुई जिंदगी जी रहे हैं। गौरतलब है कि पूरे विश्व में इजराइल और पाकिस्तान ही ऐसे दो मुल्क हैं, जिनके अस्तित्व का आधार सिर्फ धर्म है।

वर्तमान पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव न केवल उनके प्रति बहुसंख्यक मुसलमानों के व्यवहार में देखा जा सकता है, बल्कि वह संस्थागत भी है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पदों के दावेदार केवल मुसलमान ही हो सकते हैं, जिन्हें न केवल शपथ ग्रहण के जरिए अपनी धार्मिक निष्ठा का इजहार करना पड़ता है, बल्कि इस्लामी सिद्धांतों की रक्षा का वचन भी देना पड़ता है। संविधान की धाराएं देखिए, अगर कोई मुसलमान किसी गैर मुसलमान की हत्या कर दे, तो वह मृतक के परिजनों को आर्थिक लाभ देकर क्षतिपूर्ति होने के नाम पर उस अपराध से बच सकता है, जबकि गैर मुसलमानों के लिए सजा-ए-मौत निर्धारित है। जनरल जिया की सरकार द्वारा इस्लामीकरण के नाम पर बनाए गए कानून आज भी बरकरार हैं। परवेज मुशर्रफ के समय भले ही प्रबुद्ध संयम का नारा लगा हो, पर इस्लामीकरण को पलटने की हिम्मत वे भी नहीं जुटा पाए। १९९१ में पाकिस्तान की नेशनल असेंबली ने शरीअत कानून पास किया था, जिसके तहत शरिया को मुल्क का सर्वोच्च कानून करार दिया गया।

जकात और उश्र कानून न केवल मुस्लिम और गैर मुस्लिम संप्रदायों, बल्कि जुदा-जुदा मुस्लिम गुटों में भी भेदभाव करते हैं। हुदूद और जीना अध्यादेश अब आपराधिक कानून का अंग बन गए। इसके तहत बलात्कार और व्यभिचार में भेद मिटा दिया गया है। कीसास और देयात अध्यादेश अब पाकिस्तानी दंड संहिता का हिस्सा बन गए हैं। १९८४ में बना गवाही का कानून दो महिलाओं और दो हिंदुओं की गवाही को एक मुसलमान की गवाही के बराबर मानता है। अल्पसंख्यकों के साथ व्याप्त भेदभाव की सबसे बड़ी मिसाल यह है कि आज भी नाई की दुकानों में इस तरह की चेतावनी देखी जा सकती है, जिनका आशय है- यहां गैर मुस्लिमों का प्रवेश मना है। पाकिस्तानी स्कूलों और कॉलेजों में इस्लामीकरण की पढ़ाई अनिवार्य है, चाहे वह विद्यार्थी किसी भी धर्म का हो। उर्दू व अरबी अनिवार्य भाषाएं हैं, जबकि संस्कृत की बात करना या उसका प्रचार प्रसार दंडनीय है। एक मानवाधिकार संगठन ने अमेरिका में स्पष्ट बताया कि ईसाई और हिंदू युवतियां १३ वर्ष से ही अपहरण और बलात्कार की शिकार होना शुरू हो जाती हैं। जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करवाकर उनसे उम्रदराज लोगों से उनकी शादी कर दी जाती है। तलाक की स्थिति में ऐसी युवतियां अपने घर वापिस नहीं जा पाती हैं। फलत: वैश्यावृत्ति ही उनका जीवन हो जाता है। वे दर-दर की ठोकरें खाती हैं और जिल्लत की जिंदगी जीती हैं। किसी जमाने में केवल कराची शहर में ३८७ मंदिर थे, जो आज घटकर १७ रह गए हैं। अधिकतर मंदिर मस्जिदों में तब्दील हो गए। संस्कृत व्याकरण के जनक महर्षि पाणिनि की जन्मभूमि लाहौर में उनके सारे प्रतीक तोड़ दिए गए हैं। माता हिंगलाज मंदिर की स्थिति अल्पसंख्यक समुदाय को भयावह और गहरे अवसाद में ले जाने वाली है।

कराची के ल्यारी इलाके का जगदीश मंदिर वहां का सबसे बड़ा मदरसा हो गया। इतिहासकार मानते हैं कि इसी मंदिर में कभी न्यायदर्शन के प्रणेता ऋषिवर गौतम निवास करते थे। इसी मंदिर में गंगा भी गौतमी के रूप में त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग सहित अवतरित हुई थीं। अब वहां राम नाम की ध्वनि पर विराम है। संस्कृत के मंत्रों का गायन अपराध है। असहिष्णुता चरम पर है। जनवरी, २००४ में पेशावर में रह रहे सात सौ सिखों को गुरुद्वारा बीबासिंह से बेदखल कर दिया गया था। सितंबर, २००४ में सैकड़ों मुस्लिम छात्रों ने प्रसिद्ध ननकाना साहिब के परिसर पर धावा बोलकर परिसर को काफी क्षति पहुंचाई थी। जरा सोचिए, ये लोग कोन हैं? अल्लाह के बंदे तो ये कभी नहीं हो सकते।

पैगंबर मुहम्मद ने अपने अनुयायियों से कहा था, एक दिन ऐसा आएगा जब तुम्हारा मजहब हथेली पर रखे धधकते कोयले की तरह होगा, जिसे तुम पकड़ नहीं पाओगे। आज दुनिया भर के उदार मुसलमान भी चंद इस्लामी कट्टरपंथी और जिहादी गुटों के नापाक इरादों के सामने लचर दिखाई पड़ रहे हैं। धर्म भिन्नता के बावजूद आचरण तो ऐसा हो कि परस्पर एक-दूसरे के लिए आंखों में सम्मान रहे।

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