पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मातृभाषा दिवस (21 फरवरी) पर पश्चिमी बंगाल में एक नया संस्कृत विश्वविद्यालय बनाने की घोषणा की है। उन्होंने इस नए संस्कृत विश्वविद्यालय के लिए नृसिंहप्रसाद भदूरी आयोग बनाया है। यह आयोग इसके स्थान, लागत और अन्य पहलुओं के बारे में फैसला करके दो महीने में राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट देगा। यदि यह संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित हो पाता है तो पूर्वी भारत में यह तीसरा संस्कृत विश्वविद्यालय होगा। इससे पहले ओडिसा सरकार ने 1981 में जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय (पुरी) तथा असम सरकार ने 2011 में कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं प्राचीन अध्ययन विश्वविद्यालय (नलबारी) स्थापित किए हैं। इन दोनों के अतिरिक्त अब बंगाल में तीसरे संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रयास पूर्वी भारत में संस्कृत के वर्तमान हालात को सुधारने में नई दिशा दिखाएगा।
संस्कृत भाषा व साहित्य के अध्ययन-अध्यापन में आज दो रूप प्रचलित हैं। एक तरीका आधुनिक है। दूसरी धारा पारंपरिक कहलाती है। आधुनिक प्रणाली से संस्कृत उन विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है, जहां अलग से संस्कृत विभाग होते हैं। ये बीए और एमए की उपाधि के लिए संस्कृत पढ़ते-पढ़ाते हैं। यहां पाठ्यक्रम में विद्यार्थी को संस्कृत के लगभग हर पक्ष को छूना पढ़ता है। दूसरी धारा पारंपरिक है। इसमें संस्कृत की किसी एक विधा को पकड़कर उसमें पारंगत होने का भाव छिपा है। यह जटिल शास्त्रों को संस्कृत माध्यम से पढ़ने-पढ़ाने की सर्वप्राचीन पद्धति है। यहां शास्त्री-आाचार्य की उपाधियां होती हैं। इस पद्धति से अध्ययन-अध्यापन केवल संस्कृत विश्वविद्यालयों में ही होता है। स्पष्ट है, इन विश्वविद्यालयों में संस्कृत की जीर्ण-शीर्ण परंपरा को जीवित रखने के प्रयोग-प्रयास किए जाते हैं।
आज भारत में 15 संस्कृत विश्वविद्यालय हैं। इनमें केंद्र सरकार के 3 और विभिन्न राज्य सरकारों के 12 विश्वविद्यालय हैं। इन सबमें वाराणसी का संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय निर्विवाद सबसे पुराना है। इसकी स्थापना अंग्रेजों ने 1791 ईस्वी में की थी, जो धीरे-धीरे आज के रूप में परिवर्तित हो गया। अब तो लगभग प्रांतों में स्वतंत्र संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित हैं। यह जरूर है कि इनमें से अधिकतर विश्वविद्यालय 'वेंटीलेटर' पर हैं जो अपनी शैशवावस्था में ही जानलेवा 'निमोनिया' से पीडि़त हैं।
नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो यह आशा जगी कि अब संस्कृत के दिन लौटेंगे। परंतु राज्य सरकारों द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों की बात तो दूर केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालयों के हालात भी दिन-प्रतिदिन गिरते ही जा रहे हैं। संस्कृत के पंडितों ने यह विश्वास जताया था कि राष्ट्रवादी सरकार संस्कृत के विकास में नए कीर्तिमान स्थापित करेगी परंतु 10 महीने बीत जाने के बाद संस्कृत को कुछ भी संतोषप्रद न मिलना माथे पर चिंता की लकीरें पैदा करता है। केंद्र सरकार की नाक तले दिल्ली में ही स्थापित दोनों संस्कृत मानित विश्वविद्यालयों के कुलपति जैसे महत्वपूर्ण पद पर प्रशासनिक अधिकारियों की तैनाती सरकार के संस्कृत विकास के दावों को झुठलाती है। एक ओर देश की सबसे बड़ी संस्कृत संस्था राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान में अगस्त, 2013 से कोई नियमित कुलपति नहीं है। दूसरी ओर श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ में 2011 से ही किसी संस्कृत मनीषी की कुलपति के तौर पर स्थाई नियुक्ति नहीं है। इन दोनों विश्वविद्यालयों की दुरवस्था ऐसी है जो केंद्रीय स्तर पर संस्कृत की बदहाली की व्यथा-कथा बताती है। ऐसे में यह यक्ष प्रश्न सिर उठाए खड़ा है कि क्या केंद्र सरकार के साथ राज्यों की सरकारें संस्कृत के पारंपरिक ज्ञान को बचाने का दंभ मात्र भरती है या कुछ ठोस प्रयास भी कर रही हैं?
संस्कृत के बारे में एक धूमिल-सी धारणा है। इसकी शास्त्रीय परंपरा जो भी रही हो पर आज आम आदमी इसे पारंपरिक भाषा से अधिक नहीं मानता। संस्कृत की यह निजी समस्या है, जिसे अग्रणी विद्वान हल करेंगे। यह जरूरी है कि संस्कृत के बारे में लोगों में भ्रम न रहे। यह पारंपरिक ज्ञान की वाहक है। भारत की धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मिसाल की अनूठी देन है। संस्कृत का इतिहास किसी से पूछने की जरूरत नहीं है, यह सनातन है ठीक उसी तरह जैसे सनातन धर्म है। भला कौन जानता है कि सनातन धर्म कब से है? 2006 में यूनेस्को की इस घोषणा के बाद कि ऋग्वेद मानव सभ्यता का सबसे पुराना जीवित लिखित दस्तावेज है, संस्कृत सबसे पुरानी भाषा बैठती है। इतिहास के काल विभाजन में संस्कृत प्राचीन की श्रेणी में आती है या पाषाण युग में, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। इतिहास की इस उब-चुब से जितना जल्दी हो सके संस्कृत को निकाला जाना चाहिए। फिर समझा जा सकेगा कि संस्कृत एक भाषा मात्र नहीं बल्कि एक जीवित परंपरा है, जिसे बचाने का भार आज के कर्णधारों के कंधों पर है।
संस्कृत के उपकरण वे हैं जो वेद-पुराण-रामायण-महाभारत ने निर्धारित किए थे। वे समाज को सभ्य होने का संदेश देते हैं। मनुष्य को मनुष्य होने का मर्म समझाते हैं। उसके तत्व सर्वमान्य हैं। वे किसी पंथ, परंपरा या विधान के अनुगामी नहीं हैं। 'सत्यमेव जयते' जैसे अमर वाक्य का विकल्प किसके पास है, कोई बताए? यह शाश्वत सत्य भला किस धर्म या पंथ को स्वीकृत नहीं है? स्पष्ट है, संस्कृत सनातन सत्ता का सत्य है। आज इसके बारे में घोर अज्ञान है। इसकी बड़ी भारी विडंबना यही है कि इसकी शाखाएं खुद तना बन गई। हर शाखा ने वृक्ष का रूप ले लिया। मूल मरता चला गया। इसे नया जीवन देने का दायित्व संस्कृत आचार्यों पर है। संस्कृत ने जो 'सत्य' स्थापित किए वे अब पूरी दुनिया में माने जा रहे हैं। इसका फैलाव बहुत बड़ा है। फिलहाल उसके खंडहर ही दिखते हैं। इन्हें आबाद करना संभव हो सका तो यह सामाजिक समरसता का नया आंदोलन वैसे ही खड़ा कर सकती है जैसे कभी स्वामी रामानंद ने किया था।
नरेंद्र मोदी अगर संस्कृत की ऐतिहासिक महिमा को स्थापित करने में सफल होते हैं तो वे सच्चे मायने में भारत के 'भारत तत्व' को बचाने के दायित्व को निभा पाएंगे। उन्हें इसके लिए संस्कृत और उसके विश्वविद्यालयों को गंभीरता से लेना होगा। संस्कृत को मुख्यधारा से जोड़ने की मजबूत पहल करनी होगी। क्योंकि यह स्पष्ट है कि यदि संस्कृत बची रही तो सबसे पुरानी होने का दंभ भरने वाली भारत की परंपरा जीवित रह पाएगी, जिसका सपना केशव बलिराम हेड़गेवार और दीनदयाल उपाध्याय ने देखा था-भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा।
शास्त्री कोसलेन्द्रदास
सहायक आचार्य
जगद्गुरु रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय
जयपुर 302026
मोबाईल 92143 16999
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