Friday, September 18, 2015

संयम के विरोध से उपजता भाव : समलैंगिकता

लगता है कि अब वे दिन दूर नहीं जब मां-बाप अपनी बेटे को कहेंगे कि जात-पांत और धर्म को किनारे करके तू अपने जीवन के लिए किसी लडक़ी को खोज। हमें तेरे जीवनसंगी के तौर पर एक औरत ही चाहिए जो तेरे बच्चों को संभाल सके। इससे उलट यह बात वे अपनी बेटी को भी समझा सकते हैं कि उन्हें कोई मर्द दामाद चाहिए न कि कोई समलैंगिक औरत! यह कोई इवाई कल्पना मात्र नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में घट रहा सच है। आप नजर घुमाकर देखिए, पाश्चात्य देशों के कई सैलिब्रिटीज के जीवन समलैंगिकता के आधार पर ही चल रहे हैं। एक नहीं बल्कि अनेक उदाहरण हमारे सामने हंै। आंकड़ों के मुताबिक तो भारत में ही मुंबई, चेन्नई ओर गोवा में डेढ़ प्रतिशत समलैंगिक  संबंधों में पिछले 5 साल में बढ़ोतरी हुई है। ये तीनों शहर समलैंगिकता के बड़े केंद्र के रूप में भारत के भीतर उभरे हैं। इस परिस्थिति से यह हालात बने हैं कि आज समलैंगिक संबंधों की वैधता-अवैधता को लेकर पूरी दुनिया में बहस हो रही है।
इस बीच हाल ही अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को जायज ठहराने के पक्ष में जो फैसला दिया, उस पर पूरी दुनिया और धार्मिक मान्यताओं के बीच बहस जारी है। स्त्री-पुरुष संबंधों के बीच आपसी समलैंगिक रिश्तों को महत्व दिया जाए या नहीं, इस पर व्यापक बहस छिड़ी हुई है। समलैंगिकता के पैरोकारों का कहना है कि किसी स्त्री या पुरुष को किससे संबंध बनाना है, यह तय करना उनका व्यक्तिगत निर्णय है। उधर सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं से जुड़े लोगों का तर्क यह है कि ईश्वर के बनाए संसार में परंपरा से जो आदर्श चले आ रहे हैं, उनसे छेडख़ानी करके हम हमारी प्रथाओं और सामाजिक तानेबाने को रसातल में ले जाएंगे। अत: समलैंगिकता को किसी स्तर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता।
हकीकत में समलैंगिकता का भाव संयम के विरोध से उपजता है। दुनिया में कोई विचारधारा ऐसी नजर नहीं आती जहां संयम की बात न की गई हो। सारे संसार में सबसे सरल और सहज सुख प्राप्ति का उपाय सेक्स है। अन्य कार्यो में तो सुख के लिए मेहनत करनी पड़ती है। पैसा कमाने में मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन सेक्स प्रकृति का दिया ईश्वरीय वरदान है कि यह सहज ही समान रूप से स्त्री-पुरुष को आनंद देने में समर्थ है। लेकिन सेक्स की भी अपनी कोई मर्यादा और सीमा है। यदि संयम न हो तो सेक्स व्यक्ति की मृत्यु तक का कारण बन जाएगा। इसलिए संसार की सारी परम्पराओं ने सेक्स को महत्व न देकर संयम की ही वकालत की है। यदि कोई पूछे कि इस संयम का आखिर क्या प्रयोजन है? तो इसका उत्तर शाश्वत होगा कि संयम मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता है, उसे चरित्रवान बनाता है।
भारत की परंपरा तो संयम पर ही आधारित है। सारे संत और तपस्वी संयम के सहारे ही आज तक हमारी श्रद्धा-वंदना और आकर्षण के केंद्र बने हुए हैं। वाल्मीकि से लेकर महावीर, बुद्ध और दयानंद सरस्वती जैसे अनेक महापुरुषों का जीवन संयम का प्रमिान है। हमारी परंपरा जिन चार पुरुषार्थों को मानती है, उनमें धर्म और मोक्ष के बीच में अर्थ और काम है। काम को चाहे तो सेक्स कहा जा सकता है। वात्स्यायन जैसे महर्षि ने ‘कामसूत्र’ की रचना कर सेक्स के आध्यात्मिक और भौतिक दोनों स्वरूपों को तात्विक रूप से प्रकट कर दिया। लेकिन संसार के इस सर्वश्रेष्ठ कामशास्त्र ने भी समलैंगिक संबंधों का न तो जिक्र ही किया और यदि संकेतात्मक बात भी की तो इसे ईश्वर की खिलाफत करने जितना बड़ा अपराध माना।
यह समझना चाहिए कि पंरपरा ने हमारी जीवन पद्धति चार आश्रमों में विभक्त की है। इनमें ब्रह्मचर्याश्रम सर्वप्रथम है। बाद के तीन आश्रम गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास हैं। यह दुखद आश्चर्य है कि स्वतंत्र भारत की शिक्षा पद्धति में ब्रह्मचर्य को कोई महत्व नहीं दिया गया। स्कूली पाठ्यक्रमों में सेक्स शिक्षा जोडऩे की पैरवी तो बहुत हुई लेकिन ब्रह्मचर्य के मानसिक और शारीरिक महत्व को सरकारों और शिक्षा नीतिकारों ने लगभग नजरअंदाज-सा ही कर रखा है। यह जरूर है कि जहां कहीं धर्मगत या संप्रदायगत विद्यालय-महाविद्यालय चले, उन्होंने अपने छात्रावासों में ब्रह्मचर्य की कठोर साधना के लिए छात्र-छात्राओं को प्रेरित किया। निर्विवाद रूप से आर्यसमाज की इसमें बड़ी भूमिका रही है। लेकिन सरकारी स्तर पर ब्रह्मचर्य के प्रचार-प्रसार के लिए कभी कोई बड़ा कदम उठा हो, कहना मुश्किल है। जबकि होना यह चाहिए था कि विद्यार्थियों में ब्रह्मचर्य के उदात्त संस्कार भरने की जिम्मेदारी सरकार उठाती। जिस कांग्रेस ने देश में दशकों शासन किया, उसकी नींव में महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य को जोड़ा था। गांधी साबरमती में अनेक लोगों से ‘ब्रह्मचर्य का प्रयोग’ करवाते थे। इसमें कई अपराधों का समाधान गांधी ने खोजा था। बलात्कार, वासना और यौनाकर्षण जैसे गंभीर अपराधों का इलाज ब्रह्मचर्य के पास है। दुखद है कि आज की शिक्षा पद्धति सेक्स के पक्ष में खड़ी है पर ब्रह्मचर्य के प्रश्न पर मौन है! कठोपनिषद के अनुसार भोग इन्द्रियों के तेज को क्षीण करता है। छात्र के जीवन में इसी तेज को बढ़ाना पंरपरा का मकसद था। संभव है, अभी की सरकार ब्रह्मचर्य के महत्व को समझकर कोई मजबूत नीति बनाए।
यह सही है कि सेक्स में कोई दोष नहीं है क्योंकि यह मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। उपनिषदों ने कहा-सेक्स हमारे नर्वस सिस्टम को शिथिल बनाता है। जो हमें मानसिक शांति देता है। लेकिन इसमें संयम बरतना, उसका बहुत बड़ा फल है। परंपरा ने मैथुन का नियंत्रण संयम से किया। यह पति-पत्नी के बीच मात्र सन्तान उत्पत्ति के लिए होगा, उससे बाहर नहीं। यह मानकर कि मनुष्य में सेक्स सहज होता है, वैदिक परम्पराओं में इसका निषेध नहीं किया।
संयम को सेक्स के साथ जोडक़र पशु बनने से मनुष्य को रोका। लेकिन अब ये सारी बातें मजाकिया अंदाज भर रह गई है। ऐसे में जरूरी है कि ब्रह्मचर्य जैसे वैज्ञानिक विवेचन को आधार बनाकर भारत पूरे विश्व का मार्गदर्शन करे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारकों की जीवनशैली के मुख्य अंग ब्रह्मचर्य को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित करने का काम भारत सरकार करे तो पूरे विश्व को समलैंगिकता का सच्चा समाधान हम दे पाएंगे। फिर जैसे 21 जून को विश्व योग दिवस की शुरूआत हुई है, ठीक वैसे ही विश्व ब्रह्मचर्य दिवस भी माना जाने लगेगा। यदि ऐसा हुआ तो यह ब्रह्मचर्य दिवस अनेक यौन अपराधों के समाधान में रामबाण सिद्ध होगा।
शास्त्री कोसलेन्द्रदास
असिस्टेंट प्रोफेसर-राजस्थान संस्कृत विवि, जयपुर

No comments:

Post a Comment