Wednesday, June 15, 2016

गलता, श्रीमठ और त्रिवेणी


शास्त्री कोसलेन्द्रदास

यह बिना विवाद का ऐतिहासिक सच है कि शताब्दियों से जयपुर का गलता तीर्थ रामानन्द सम्प्रदाय का श्रद्धा केंद्र है। आप जानते हैं कि उत्तर भारत में चौदहवीं शताब्दी में हुए मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक रामानन्दाचार्य थे। उनके 12 प्रमुख शिष्य थे। ये जाने-पहचाने नाम हैं। अनंतानंदाचार्य, नरहर्यानंदाचार्य समेत कबीर, रैदास, धन्ना, सेन और पीपा जैसे अनेक संत-भक्त-कवि इसमें शामिल हैं। इससे रामानंदाचार्य की महिमा को समझा जा सकता है। वे छुआछूत और भक्ति में सामाजिक भेदभाव के विरोधी थे।
जयपुर की ऐतिहासिक गलता गद्दी का संबंध इन्हीं रामानंदाचार्य से है। सारी वैष्णव परंपराएं यही बताती 
हैं। कोई भी परंपरा एक-दो दिन में नहीं बनाई जा सकती। यह लंबे कालखंड में खुद बनती है। रामानंदाचार्य से प्रवर्तित संप्रदाय का लंबा-चौड़ा इतिहास है। यह काशी से शुरू होकर जयपुर होते हुए रैवासा तक पहुंचता है। अयोध्या और चित्रकूट जैसे बड़े तीर्थ रामानंद संप्रदाय के गढ़ हैं। इन सबके बीच भी गलता पीठ इस संप्रदाय का केंद्र बिंदु है। इसका लगभग साढ़े चार सौ साल का इतिहास है। इस दौरान यहां से अनेक आध्यात्मिक विभूतियां पैदा हुईं। जिस बात पर अभी विवाद हो रहा है, वह यह है कि गलता किस संप्रदाय की पीठ है? जिस बात पर कोई विवाद नहीं है, वह यह है कि गलता पीठ के संस्थापक आचार्य कृष्णदास पयोहारी थे। भक्तचरित्र के सबसे प्रामाणिक ग्रंथ ‘भक्तमाल’ के अनुसार वे स्वामी अनंतानंदाचार्य के शिष्य थे। अनंतानंदाचार्य खुद रामानंदाचार्य के सर्वप्रमुख शिष्य थे।

 कृष्णदास पयोहारी दाधीच ब्राह्मण वंश में जन्मे। वे काशी के पंचगंगा घाट पर बने ‘श्रीमठ’, जो रामानन्द सम्प्रदाय का एकमात्र प्रामाणिक मुख्यालय है को मुगल आक्रांताओं से बचाकर जयपुर ले आए। ये स्वामी रामानंदाचार्य के बाद श्रीमठ के तीसरे आचार्य थे। इनसे पहले इस गद्दी पर अनंतानंदाचार्य बैठे, जो इनके गुरु थे। जब धर्मद्रोही आक्रांताओं ने श्रीमठ पर आक्रमण किया तो संसार का सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक केंद्र भयावह खंडहर में बदल गया। राम-नाम संकीर्तन के बदले नमाज की धारा चल पड़ी। रामभक्तों का जमघट मुल्ला-मौलवियों में बदल गया। अनेक साधन-सिद्धियों के जानकार होने पर भी पयोहारी कृष्णदास इसे विधि का विधान मान संप्रदाय की पीठ स्थापित करने के लिए जयपुर पहुंचे। इस समय जयपुर के राजा पृथ्वीराज थे। जयपुर में पहले से ही जमे नाथपंथियों को उन्होंने अपनी आध्यात्मिक-योग साधना से प्रभावित कर चामत्कारिक रूप से वैष्णव बनाया। जयपुर में ‘गलता’ नाम से रामानंद संप्रदाय का मुख्यालय स्थापित किया। यह बात 16वीं सदी के बीच की है। इस नाते जयपुर रामानन्द सम्प्रदाय का शताब्दियों तक मुख्यालय रहा है। इस इतिहास पर कोई आपत्ति नहीं है। संत साहित्य और हिंदी साहित्य के प्रामाणिक अनेक विद्वान इसे एकमत होकर मानते हैं। पयोहारी के विभिन्न शिष्यों में तीन प्रमुख हैं-कील्हदेव, अग्रदेव और टीलादास। इनमें अग्रदेवाचार्य ने रैवासा (सीकर) पीठ स्थापित किया। यह पीठ रामानंद संप्रदाय के सर्वाधिक गौरवमय पीठों में एक है। यह भी ध्यातव्य है कि रैवासा में अग्रदास स्वामी के शिष्य नाभादास ने ‘भक्तमाल’ की रचना 1600 ईस्वी के आसपास की थी।
गलता की इस उदात्त तपस्वी परम्परा में शर्मनाक मोड़ तब आया जब रामोदराचार्य ने साधु नियमों का उल्लंघन कर गृहस्थ वेष अपनाया। रामोदराचार्य 1947 के आसपास इस गद्दी पर बैठे। तब वे विरक्त साधु थे। 15 फरवरी, 1947 को लिखे एक पत्र में उन्होंने स्वयं को रामानंद संप्रदाय का साधु बताया। उन्होंने उस पत्र में यह भी लिखा था कि किसी भी साधु का विवाह करना संप्रदाय परंपरा के साथ ही शास्त्रों के भी घोर विरुद्ध है। ऐसे अपराध करने वाले को पीठ से हटा देना चाहिए। लेकिन बाद में इन सब नियमों को धता बताकर 1956 ईस्वी में उन्होंने विवाह कर लिया। वे ‘आरूढपतित’ हो गए। संप्रदाय के साधुओं ने जब इस पर आपत्ति उठाई तब पैंतरा बदलकर अपने बचाव में उन्होंने इस एक झूठ को सौ बार बोला कि गलता रामानन्द नहीं बल्कि रामानुज सम्प्रदाय का स्थान है! यह झूठ बोलने के पीछे का खेल साफ है। वे जानते थे कि रामानुज सम्प्रदाय में विरक्तों के अलावा गृहस्थ परम्परा भी होती है। दोनों सम्प्रदायों के सिद्धांत और तिलक में आंशिक समानता होने से यह बात लोगों में धीरे-धीरे फैलाई गई। आम लोग इस जालसाजी को समझ नहीं पाए और बीते लगभग 6 दशकों में गलता के साम्प्रदायिक ज्ञान से अनभिज्ञ हो गए। ऐसे में यह सत्य है कि त्रिवेणी के संत नारायणदास ने इस षडयंत्र को समझा। उन्होंने रामानंदियों को चेताया। मजबूत संगठन तैयार किया। गलता गद्दी की दुरवस्था से रामानंद सम्प्रदाय पर लगे कलंक को हटाने का बीड़ा उठाया। सडक़ से सदन तक लड़ाइयाँ लड़ी। मुकदमे हुए। न्यायालय के फैसले जो भी आए लेकिन उन्होंने आज तक हार नहीं मानी है। यह कहना तो नासमझी है कि उनका रामानुज संप्रदाय से कोई मनमुटाव है। उनका काम बताता है कि वे रामानुज संप्रदाय के खिलाफ कभी नहीं हुए। उनका मकसद तो गलता के खोए इतिहास को पुन:स्थापित करना है। याद कीजिए, जब वसुंधरा राजे की पहली सरकार थी, तब उन्होंने स्टेच्यू सर्किल से विधानसभा तक विशाल पदयात्रा निकाली थी। इसमें उनके खुद के अलावा रैवासा के राघवाचार्य समेत अनेक संत और भक्त थे। मैं स्वयं उस आंदोलन में था।
गलता के तथाकथित महंत अवधेशाचार्य ख़ुद सारे सच से वाकिफ हैं। पर वे इसे स्वीकार नहीं सकते क्योंकि इस विवाद पर भ्रमपूर्ण-असत्य की चादर डाले रखना उनकी मजबूरी है। आश्चर्य है कि जिस गलता पीठ से रामानंद संप्रदाय के 18 द्वारे (विशिष्ट स्थान) निकले, वह गलता रामानुज संप्रदाय का हिस्सा कैसे हो गई? एक ही बीज से दो भिन्न-भिन्न शाखाएं कैसे निकल पड़ी? यदि यह अवधेशाचार्य या उनके पिता रामोदराचार्य का बनाया हुआ षडयंत्र है तो यह धर्म के इतिहास का काला अध्याय है। न्याय शास्त्र के विद्वान जानते हैं कि गुरु और शिष्य के अविच्छिन्न संबंध को ‘संप्रदाय’ कहते हैं। वार्तिककार उद्योतकर ने संप्रदाय की यही परिभाषा दी है। अब यदि 18 गुरुगादियां रामानंद संप्रदाय के रीति-रिवाजों में बंधी है तो फिर उनका मूल उत्स गलता रामानुज संप्रदाय में कैसे हो गई? यदि अवधेशाचार्य सच्चे हैं तो उन्हें इस मुद्दे को तथ्यों के साथ सुलझाना चाहिए। लेकिन यह कैसे भी संभव नहीं है क्योंकि तथ्य कभी तर्कों से नहीं काटे जा सकते। और ऐतिहासिक सारे तथ्य रामानंद संप्रदाय के साथ हैं!
एक रहस्य की पुरानी बात है। यह बात 2010-11 की सर्दियों में तब की है जब अवधेशाचार्य हरिद्वार में महामंडलेश्वर भगवानदास के रामानन्द आश्रम 
में मुझे मिले थे। तब उसी आश्रम में रामानन्द सम्प्रदाय के प्रधान स्वामी रामनरेशाचार्य भी थे। अवधेशाचार्य ने उनसे गलता विवाद पर कहना शुरू किया। पर उन्होंने उनकी एक बात भी न सुनी और कहा कि जितना जल्दी हो गलता तीर्थ रामानंदियों को सौंप देना चाहिए। रामनरेशाचार्य ने गलता के लोकोत्तर इतिहास को बचाने के लिए नारायणदास के सत्प्रयासों की प्रशंसा की और कहा कि ‘गलता मुद्दे पर पूरा संप्रदाय उनके साथ है।’ यह मेरे सामने की बात है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। 

रामानंद संप्रदाय के लिए यह कष्टप्रद है कि श्रीमठ और त्रिवेणी के बीच की अनबन से सम्प्रदाय को खासा नुकसान हुआ है। यह खाई संतों ने नहीं बल्कि स्वार्थी दलालों ने खोदी है। हालांकि कुछ समझदार सम्प्रदायनिष्ठ संतों, विद्वानों और भक्तों ने इस खाई को पाटने की पहल भी की पर वह मजबूरी की चक्की में पिस गई। यह भी रहस्य है कि जयपुर में जब जगदगुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय के विशाल भवन का उद्घाटन उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने किया था तब जगदगुरु रामनरेशाचार्य को इस समारोह में बुलाने के प्रयास हुए थे। उस समय वे मुंबई में चातुर्मास कर रहे थे। परिणामत: वे नहीं आ सके। यह सितम्बर, 2005 की बात है। यदि तब इन दोनों आध्यात्मिक विभूतियों का मिलना संभव हो पाता तो अनेक सांप्रदायिक समस्याओं का निदान अब तक हो चुका होता! इससे संत समुदाय मजबूत होता। रामानंद संप्रदाय के समर्पित विद्वानों का एकत्रीकरण अनुपम रीति से हुआ होता। खैर, अब भी समय बीता नहीं है। रामानंद संप्रदाय को बचाने के लिए दोनों ओर से मजबूत पहल होनी चाहिए!

आज के रामानंद संप्रदाय की जरूरत श्रीमठ और त्रिवेणी के एक होने की है। इससे कई मिथक टूटेंगे। संप्रदाय के भीतर फैले नकली जगदगुरुओं का दंभ टूटेगा। गलता जैसे विवाद सुलझेंगे। दलालों-चापलूसों के बाजार टूटेंगे। सम्प्रदाय का इतिहास सुदृढ़ होगा। रामभक्तों का जमघट जमेगा। अंतत: इन सबका फल रामानंद सम्प्रदाय की मजबूती होगा।
मैं 1999 में पहली बार श्रीमठ गया था। यह यात्रा श्रीमठ के अतीत के गौरव को छूने की थी। वहां जाकर दुखद आश्चर्य हुआ कि विशाल श्रीसंप्रदाय का मुख्यालय किस कदर नष्ट हो चुका है। इतिहासकार बताते हैं कि जहां कभी श्रीमठ था, वहां अब लोगों के घर हैं। मस्जिदें हैं। दुकानें हैं। तरह-तरह के पड़ाव हैं। काशी में श्रीमठ के नाम से बहुत जरा-सी पुण्यभूमि बची हुई है, जहां अभी स्वामी रामनरेशाचार्य रहते हैं। आज के श्रीमठ को बचाने का श्रेय रामानंद संप्रदाय की महान विभूति स्वामी भगवदाचार्य को जाता है। वे रामानंद संप्रदाय के अप्रतिम उद्धारक संत थे। जितने बड़े विद्वान, उतने ऊंचे साधक। आज उन जैसे महामना महात्मा की संप्रदाय को बहुत जरूरत है। यह जो श्रीमठ था इसे ही कृष्णदास पयोहारी बचाकर शताब्दियों पहले जयपुर ले आए थे, जो आज तक ‘गलता’  नाम से स्थापित है।
उस यात्रा में मुझे एक महत्वपूर्ण पुस्तक भी मिली थी। यह फरवरी, 1989 में छपी। नाम है ‘श्रीमठ स्मारिका’।
यह स्मारिका स्वामी रामनरेशाचार्य के ‘जगद्गुरु रामानंदाचार्य’ पद पर बैठने के बाद छपी। इसके प्रधान संपादक डॉ. रामकुमारदास महाराज ‘मानसतत्त्वान्वेषी’ हैं। सम्पादक मंडल में जो नाम दिए हैं, उनमें  ‘अग्रदेवाचार्यपीठाधीश्वर श्री राघवाचार्य’ भी 
हैं । स्मारिका के संरक्षक ‘जगद्गुरु श्री रामानंदाचार्य स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज’ हैं। संरक्षक समिति में ऊपर के क्रम से दो नाम हैं। पहला नाम ‘महान्त श्री बलराम दास जी महाराज, गुजरात’ और दूसरा ‘महान्त श्री नारायणदास जी महाराज, राजस्थान’ है। यह स्मारिका मन को गहरा सुकून देती है। यह रामानंद संप्रदाय की एकता की त्रिवेणी है। इसका एक तट श्रीमठ और दूसरा त्रिवेणी है। ‘स्मारिका’ में रामानंद संप्रदाय की जिन विभूतियों के चित्र छपे हैं, उनमें पहला चित्र अग्रदेवाचार्यपीठाधीश्वर राघवाचार्य का है।
बीच में जगद्गुरु रामानंदाचार्य रामनरेशाचार्य और अंत में त्रिवेणी के स्वामी नारायणदास महाराज का चित्र है।
अब फिर इस त्रिवेणी की धाराओं के घुल-मिल जाने की जरूरत है। याद कीजिए, रामनरेशाचार्य और नारायणदास ने भुजा उठाकर कभी रामानंद संप्रदाय के उद्धार का बीड़ा साथ-साथ उठाया था। इतिहास साक्षी है, रामनरेशाचार्य कई दिनों तक त्रिवेणी में और नारायणदास श्रीमठ में रहे हैं। अगर आज फिर ऐसा संभव हो पाता है तो यह रामानंद संपद्राय में आपसी सद्भाव के सबसे बड़े आंदोलन का सूत्रपात होगा, जो अनंत काल तक इतिहास में दर्ज रहेगा। इसी मिलन का आह्वान न केवल रामानंद संप्रदाय किंवा पूरा सनातन धर्म कर रहा है! शेष रामजी की कृपा से सब ठीक है।

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