Tuesday, May 10, 2016

नकलचियों को चिढ़ाता है 'कुम्भ'

क्षिप्रा के किनारे विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक उत्सव का समापन होने के कगार पर है। महाकाल की नगरी उज्जैन में भारत के धर्म, संस्कृति और संस्कारों का अनहदनाद हो रहा है। देश के कोने-कोने से आए हजारों कलाकार वैदिक अनुष्ठानों, संतो के प्रवचन और रामलीला-कृष्णलीला पर झूम रहे हैं। लाखों लोग अपने-आपको भूलकर ‘सीताराम-राधेश्याम’ का भावपूर्ण कीर्तन कर रहे हैं। यह कोई पर्व या मेला नहीं बल्कि भारत के शाश्वत धर्म, संस्कृति और सनातन संस्कारों की श्रेष्ठता और इनकी वैश्विक स्वीकार्यता का एक प्रतीक है। कदाचित यही प्रतीक कुछ बुद्धिजीवियों के विरोध का कारण है। वे कुंभ के महासागर में निहित अमृत तत्व को खोजने की बजाय उस हलाहल विष की फिराक में है, जो उन्हें नष्ट कर देगा।
कुंभ को एक हुजूम का उच्छृंखलतापूर्ण मेला बताने वाले पर्यावरण की सुरक्षा के नाम पर पवित्र नदियों में स्नान को गलत बता रहे हैं। लेकिन ये तथाकथित पर्यावरणविद् तब तक तो एक शब्द भी नहीं बोले जब अनेक तीर्थ गंदे नाले में तब्दील हो गए। ‘कन्हैया’ के गीत गाने वाले गोपियों के ‘कान्हा’ की ‘कालिन्दी’ की सुध लेते तो यह श्रेष्ठ जल प्रवाह के रूप में आज तक बह रही होती लेकिन वे तो ऐसे मौके तलाशते हैं जब भारत या उसकी सहस्राब्दियों पुरानी परंपरा के किसी कार्यक्रम में रोड़े अटकाने हों। इस कार्यक्रम से अपनी राजनैतिक क्षुद्रताओं की पूर्ति करने में लगे उन तथाकथित बुद्धिजीवियों का आकस्मिक नदी प्रेम स्पष्ट करता है कि उन्हें इन सब माध्यमों से उन कार्यक्रमों का विरोध ही करना है, जिनसे भारतीय परंपरा मजबूत होती है।
आज की मूल समस्या क्या है? यह मनुष्य के भीतर शील और अच्छाई का संकट है। ऐसा नहीं है कि अच्छाई नहीं है। अच्छाई है! लेकिन यह अक्षम और अपर्याप्त है। इस अच्छाई को सक्षम और पर्याप्त कैसे किया जाए, इसी के प्रयास ऐसे आध्यात्मिक आयोजनों से होते हैं। वहां पर अच्छाई बांटने की कोई सीमा रेखा तय नहीं है। वे दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सार्वभौम जीवन दृष्टि की अच्छाई बांटते हैं। इसीलिए संतों के सनातन सिद्धांत जाति, प्रांत, भाषा और राष्ट्र से ऊपर उठकर लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और कला संबंधी एक धरातल पर ला खड़ा कर देते हैं। कुंभ इसी की एक बानगी है। ऐसे महोत्सव विश्व संस्कृति के रंगमंच पर भारतीयता की अमिट छाप छोड़ते हैं, परस्पर दुराव, अलगाव और द्वेष को भी समाप्त करते हैं। जन-चित्त दिन पर दिन हिंसामुखी होता जा रहा है। मनुष्य के स्थान पर पशुत्व प्रधान शक्ति सक्रिय हो रही है। जहां-तहां हिंसामुख भीड़ मानव समाज को सर्वाधिक नुकसान पहुंचा रही है। ऐसे में हमारे भीतर सोई अध्यात्म शक्ति यदि जाग उठे तो वह जनशक्ति समूचे विश्व का बिना किसी भेदभाव के कल्याण करेगी।
भारत में एक महान सभ्यता रही है। संत उसके वाहक हैं। ये समय-समय पर लोगों के अवचेतन में अध्यात्म को पिरोते रहते हैं। समाज में अंतर्निहित अच्छाई का बोध कराने के लिए ये संत लोगों को समूह रूप में इकट्ठा करके उन्हें आत्मबोध कराते हैं। इतिहास साक्षी है, तीन-तीन वर्ष के अंतराल पर होने वाले कुंंभ मेले लोगों के परस्पर मिलने और संवाद करने के सुदृढ़ माध्यम रहे हैं। ऐसे आयोजन मन के बढ़ते दरिद्रीकरण और बंध्याकरण को रोकने में रामबाण सिद्ध होते हैं। इसका प्रभाव हमारी नई पीढ़ी के नैतिक चरित्र और मानवीय प्रकृति पर पड़ता है। जहां आज का ‘नया मनुष्य’ अधिक उपार्जन या अधिक क्षमता को ही ईश्वर मान बैठा है, वहां कुंभ जैसे आयोजन विश्व संस्कृति को दूर तक प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि हजारों विदेशी कुंभ में ‘राम नाम’ जप कर रहे हैं।
तथाकथित बुद्धिजीवियों का यह ‘ब्रह्मवाक्य’ है कि जो विज्ञानसम्मत नहीं, वह असत्य है। इस असत्य से उन्होंने धर्म और अध्यात्म को भी जोड़ दिया। इस नासमझी से यह नुकसान हुआ कि भारतीय मूल्यों के प्रति आधुनिक संस्कृति न केवल उदासीन है, बल्कि एक सीमा तक असहिष्णु और हिंसक भी है। इस असहिष्णुता में वे यह भूल जाते हैं कि जिस संस्कृति को नीचा दिखाकर वे अपनी आधुनिकता दरशा रहे हैं, उसी संस्कृति पर हमारी श्री, शोभा, सहजता और सच्चाई टिकी हुई है। लेकिन दुर्भाग्य से आज भारत की सारी व्यवस्था, अर्थ, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और साहित्य ‘छिन्नमूल’ नवशिक्षित बुद्धिजीवियों के हाथ में है। ये जन्मत: भारतीय होते हुए भी मानसिक रूप से ‘आउट साइडर’ हैं। तुष्टिकरण की काली छाया इन पर गहरी छाई है। चालू हवा के खिलाफ जाकर जब भी इस छाया को हटाने का कोई ‘व्यक्ति’ या ‘संगठन’ काम करता है तो ये उस उजाले को रोकने का भरसक प्रयास करते हैं।
यह आवश्यक है कि इतने बड़े आयोजन में जगद्गुरु शंकराचार्य समेत धर्म की विभिन्न परंपराओं के श्रेष्ठ संन्यासी-महात्माओं को नकली धर्माचार्यों को बाहर निकाल फेंकना चाहिए। वैदिक सनातन धर्म को मानने वालों में इन धर्माचार्यों की मान्यता पारंपरिक रूप से गहरी है। इन आचार्यों के संप्रदायों का इतिहास हजारों साल पुराना है लेकिन कुंभ में भी जिस तरह से धन-बल का प्रयोग कर लोग महामंडलेश्वर और जगद्गुरु जैसी उपाधियों पाकर जनता को भ्रमित कर रहे हैं, उसका अविलंब परिष्कार जरूरी है। पारंपरिक रूप से सदाचारी, विद्वान और धर्मज्ञ व्यक्तियों का धर्माचार्य होना समाज और राष्ट्रहित में है।

- शास्त्री कोसलेंद्रदास -
(लेखक राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)

No comments:

Post a Comment