इस बार राम नवमी 5 अप्रेल को पड़ी। बनारस के श्रीमठ में वाल्मीकि रामायण की कथा हुई। यह रामकथा यहां कब से हो रही है? पूछा तो मठ के व्यवस्थापक विधान बाबा बोले कि ’यह सगुण और निर्गुण रामभक्ति परंपरा का मुख्य पीठ है। यहां तो रामजी की कथा होती ही रहती है।’ आश्चर्य हुआ कि क्या यह छोटा-सा आश्रम इतनी बड़ी धारा का सच्चा गोमुख है? श्रीमठ के अंदर जाओ तो उस शांत मंदिर में पांच मूर्तियां लगी हुई है। बीच में स्वामी रामानंदाचार्य। उनके एक ओर अनंतानंदाचार्य और संत पीपा। दूसरी तरफ महात्मा कबीर और संत रैदास। काशी का इतिहास कहता है कि गंगा की गोद में अधिकार भाव से बैठा श्रीमठ स्वामी रामानंद के रहने का ठिकाना था। उनके साथ हजारों साधु, संन्यासी, वैरागी, नाथपंथी तथा जंगम-जोगड़े भी इसी मठ में रहते थे। सात शताब्दियों पहले स्वामी रामानंद ने यहीं जन्म सत्ता की बजाय व्यक्ति सत्ता को महत्त्व देकर आध्यात्मिक-लोकतंत्र की भावभूमि खड़ी की थी। लुप्त होती जा रही संत परंपराओं के भीतर वे ऐसे आचार्य हैं, जिनका ’श्रीमठ’ आज तक गंगा किनारे अटल खड़ा है। तभी तो देशी-विदेशी यात्रियों को गंगा में नौका विहार करवाते हुए काशी के केवट पंचगंगा घाट पर बने श्रीमठ के बारे में कहते हैं, ’देखिए, यह रामानंद स्वामी जी का ’श्रीमठ’ है। इसी मठ में रामानंदजी महाराज ने कबीर, रैदास, पीपा और धन्ना जाट को रामजी का मंत्र देकर अपना शिष्य बनाया था। इनके चेलों में गोस्वामी तुलसीदास और मीराबाई भी थी। स्वामी रामानंद के अलावा शुद्धाद्वैत वेदांत के प्रवर्तक वल्लभाचार्य, संत एकनाथ, समर्थगुरु रामदास तथा तैलंग स्वामी जैसे महामानव पंचगंगा घाट की इन्हीं सीढ़ियों पर पले-बढ़े। बनारस के घाटों पर इतना बेजोड़ सांस्कृतिक मठ शायद ही कोई दूसरा हो!’
श्रीमठ को देखकर लगता है कि आखिर क्या होता है छोटी-सी जगह में अपनी परंपरा को जीवित रखने का मतलब। पंचगंगा घाट भारत के भक्ति इतिहास में तो अमर है लेकिन इसका आज की राजनीति के बदलते संदर्भों में भी खास महत्त्व है। आध्यात्मिक चेतना से भरपूर कबीर, रैदास, सैन और धन्ना को इसी घाट का आसरा मिला। यहीं आकर उनकी गुरु की खोज पूरी हुई। उन्हें गुरु रामानंद इसी घाट पर मिले। यहां के घाटों-पत्थरों में रामानंद के साथ कबीर और रैदास के स्पर्श का जादू है
। इस घाट पर लगे पत्थर बताते हैं कि कैसे छुआछूत के कारागार से बाहर निकल कर स्वामी रामानंद ने कबीर और रैदास को गले लगाया था। किसी की जात-पांत न पूछी और न ही अपनी बताई। सिर्फ राम-राम और राम!
श्रीमठ में कभी स्वामी रामानंद का दिया वह अमर नारा गूंजा था, ’जात पांत पूछे नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।।’ इसी नारे के साथ ब्राह्मणवाद को स्वामी रामानंद ने समाजवाद में बदला था। मुगल आततायियों के सामने मजबूत भारतीय समाज खड़ा किया था। उनके आनंद मठ में चर्मकार रैदास, जुलाहे कबीर, जाट धन्ना और नाई सेन के लिए पर्याप्त जगह थी। यह जगह भी गागरौन के महाराजा पीपा और ब्राह्मण अनंतानंद के साथ। पद्मावती और सुरसरि, इन दो महिलाओं ने भी उनके बारह प्रमुख शिष्यों में अपनी जगह बनाई थी। कोई वर्ण, लिंग और वर्ग का भेद नहीं। केवल राम नाम का संबंध। अनेक संत परंपराएं श्रीमठ से निकली। दादू, रामस्नेही, वारकरी, घीसा पंथ, कबीर पंथ और रैदास पंथ जैसी ढेर सारी भक्ति-काव्य परंपराओं का मूल उत्स श्रीमठ है। कालांतर में हर शाखा ने वृक्ष का रूप ले लिया। मूल मरता चला गया। यह विडंबना है कि आज इनमें से कोई परंपरा शायद ही श्रीमठ में खुद को ढूंढ़ना चाहती हो। यह श्रीमठ की अपनी समस्या है जिसे अग्रणी संत तथा विद्वान हल करेंगे। जिस बात पर विवाद है वह यह है कि श्रीमठ को कब व किसने बनाया? कुछ इसे रामानंद स्वामी का बनाया मानते हैं। कुछ उनके गुरु राघवानंद स्वामी का बनाया बताते हैं। जिस बात पर कोई विवाद नहीं है, वह यह है कि श्रीमठ मध्यकालीन भक्ति आंदोलन को सबसे बड़ा केंद्र था। संत साहित्य के विद्वान सुखदेव सिंह इसे मध्यकालीन भारत की सबसे बड़ी आध्यात्मिक पहचान मानते हैं। रिचर्ड बर्गट ने अपने शोध में पाया कि आज के उत्तर भारत जो हिंदू धर्म है, उसे ’रामानंदी हिंदू धर्म’ कहना चाहिए। क्योंकि रामानंद न होते तो इसका अस्तित्व बचे रहना मुश्किल था। आज श्रीमठ जातीय आधार पर टूट रहे समाज के बीच एक अकाट्य सत्य है। एक समान सूत्र में बांधने का धागा है। जो भारत में फैल रही जातीय वैमनस्यतारूपी बीमारी की रामबाण दवा है। भले ही, सवर्ण और दलित, इन दो ध्रुवों में बंटे वोटों को श्रीमठ की याद नही है। पर वह गंगा किनारे खड़ा समरसता फैलाने की अपनी साधना में लीन है।
श्रीमठ अपनी सादगी और सच्चाई के साथ भारत को बचाने के लिए आवाज दे रहा है। वह ऊंच और नीच के भेद को मिटाकर राम के नातों की दुहाई दे रहा है। पर क्या श्रीमठ आज भी वह काम कर रहा है जो कभी स्वामी रामानंद ने किया था? क्या आज भी कोई कबीर गंगा किनारे ’चदरिया झीनी रे झीनी!’ का आलाप लगा रहा है? कोई रैदास ’प्रभुजी तुम चंदन हम पानी!’ गुनगुना रहा है? क्या श्रीमठ में ब्राह्मण-पुरोहित कबीर और रैदास को याद कर रहे हैं? आज के दौर में चल रहे दलित विमर्श में श्रीमठ का कोई अस्तित्व है? इन सवालों का जवाब ’हां’ और ’ना’ में नहीं हो सकता। क्योंकि इसका एक ऐतिहासिक सफर है। इसका भौगोलिक इतिहास अब बदल चुका है। इसे समझने के लिए श्रीमठ को जानना पड़ेगा। वहां बड़ा अद्भुत दृश्य दिखाई देता है कि स्वामी रामानंद का वह विशाल वन और मठ ऐतिहासिक रूप से नष्ट हो चुका है। अब वहां तरह-तरह के पड़ाव है। गलियां हैं। दुकाने हैं। रास्ते हैं। मस्जिदें हैं। पंचगंगा घाट पर श्रीमठ के नाम से बहुत जरा-सी पुण्य भूमि बची है, जहां अभी स्वामी रामनरेशाचार्य रहते हैं। उनके साथ अनेक संत, संन्यासी, विद्वान और संस्कृत पढ़ने वाले विद्यार्थी हैं। किसी की जाति एक जैसी नहीं है। प्रांत और भाषा समान नहीं है। कोई सवर्ण है तो कोई दलित। कोई राजपूत है तो कोई केवट। श्रीमठ में चल रही रामायण कथा में आचार्य उमेश नेपाल केवट प्रसंग सुना रहे हैं तो राजघाट से कथा सुनने आए केवट झूम रहे हैं। वे दावा कर रहे हैं कि ’उनकी और रामजी की जाति एक है। दोनों लोगों को पार ही तो लगाते हैं!’ कथा चालू है। श्रीराम कौल, भील, किरात और निषादों से गले मिल रहे हैं।
कथा की समाप्ति पर मंदिर में आरती होती है। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से वेद पढ़े हुए ब्राह्मण बटुक वेद मंत्रों से आरती करते हैं। रामनरेशाचार्य और उनके सहयोगी साधु आरती गा रहे हैं। उनकी आरती की थाली भगवान श्रीराम से होते हुए हनुमानजी की ओर बढ़ती है। वहां से स्वामी रामानंद की आरती उतारने के बाद जली हुई बत्तियां वैदिक मंत्रों के साथ अनंतानंदाचार्य तथा भक्त पीपा की आरती उतारकर महात्मा कबीर और संत रैदास पर जा रुकती है।
जयकारे लगते हैं। उनके लिखे भजनों का सुमधुर कीर्तन होता है। दंडवत प्रणाम होता है। प्रसाद बंटता है। क्या यह दृश्य आज के दौर में निराला नहीं है? क्या यह आपस में जोड़ने का सच्चा प्रयोग नहीं है? लेकिन इन सबका कोई प्रचार नहीं, प्रसार नहीं। पूरी भक्ति भावना के साथ सवर्ण-दलित संयोग का शास्त्रीय और भक्ति के धरातल पर विरला समन्वय। स्वामी रामनरेशाचार्य से जब पूछा कि कबीर और रैदास को गंगा किनारे पूजने से आपके ब्राह्मणवाद पर कोई असर पड़ा है? सुनते ही वे बेबाक बोल उठे कि मैं क्यों भेद करूं, जब ईश्वर ही भेद नहीं करता तो। सूर्य सबको समान किरण देता है। हवा सबको समान मिलती है। ईश्वर पारदर्शी वितरण करता है तो फिर हम क्यों वितरण में भेद करें? श्रीराम सबके लिए समान हैं। वे शबरी के भी हैं और महर्षि वशिष्ठ के भी।
मुख्यधारा की राजनीति श्रीमठ की विरासत संभाल रहे स्वामी रामनरेशाचार्य का महत्त्व जानती है। 1994 में प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के जमाने में राम जन्मभूमि विवाद को सुलझाने के लिए गठित ’रामालय ट्रस्ट’ के वे प्रधान बनेे। स्वामी रामानंद के रास्ते पर चलने वाले वे ऐसे महात्मा हैं जो पटना के हनुमान मंदिर में एक दलित को पुजारी बनाने के लिए पहचाने जाते हैं। हरिद्वार में बना रहे राम मंदिर का शिलान्यास 2005 में जामा मस्जिद के इमाम से करवाने का साहस रखते हैं। ब्राह्मणों-दलितों को श्रीमठ में बिना किसी भेदभाव के संस्कृत पढ़ा रहे हैं।
आज जिस उदार सनातन धर्म की जरूरत है, वह काशी के पंचगंगा घाट पर बस रहा है। यह श्रीमठ लोगों को तोड़ने नहीं बल्कि जोड़ने का काम कर रहा है। काला पहाड़ नहीं बल्कि आपसी समझ के सेतु बना रहा है। जरूरत इस बात की है कि जातिगत और धर्मगत राजनीति करने वाले श्रीमठ को समझें और सद्भावना तथा संवाद के महासागर के निर्माण में अपनी भूमिका निश्चित करें। तभी स्वामी रामानंद का भक्ति आंदोलन सात सौ साल के बाद भी रफ्तार पकड़ेगा और कबीर तथा रैदास फिर से चलते-फिरते नजर आने लगेंगे।
शास्त्री कोसलेन्द्रदास
सहायक आचार्य
राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर 302026
मो. 9214316999
जय जय श्री सीताराम
ReplyDeleteजय जय श्री रामानंद भगवान्
यज्ञेश दास
जन्म सत्ता और व्यक्ति सत्ता। ब्राह्मणवाद और समाजवाद। इस द्वंद्व-द्वयी में आपने बहुत कुछ कह दिया है। ब्राह्मणवाद का ब्राह्मण शब्द तो पवित्रतम शब्द है, पर जब वाद जुड़ जाता है तो सबसे बड़ा अपशब्द बन जाता है। ब्राह्मण के साथ चिंतन जुड़ा है, जबकि ब्राह्मणवाद के साथ थोथापन। ब्रह्म( ज्ञान) को अपने जीवन के केंद्र में रखने से कोई ब्राह्मण है तो अपने तुच्छ अहंकार के कारण ब्राह्मणवादी।
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