कबीर एक ऐसी अनूठी धधकती
ज्वाला है, जिसने सामान्य जनता से संवाद के पुल बनाकर ऐसा
भक्ति साहित्य रचा, जो सुदीर्घ काल से हमें
सम्मोहित किए हुए है। वह साहित्य आजकल के बौने चिंतकों से ज्यादा आधुनिक और
क्रांतिकारी है। यदि कबीर को हम चलता-फिरता उपलब्ध कर पाते तो हम मिल पाते मनुष्य
मात्र के श्रेष्ठ होने का शंखनाद करने वाले एक अमर संत से। मनुष्य होने के आधार पर
उस ‘निर्गुण’ को भी खोज लेने का रास्ता दिखा देने वाले कबीर
मानव के जन्म से ही श्रेष्ठ होने के सबसे मजबूत उदाहरण है। मानव स्वातंत्र्य के
पहले मुखर प्रतिनिधि कबीर ने संत साहित्य को समाज साहित्य में ऐसा बदला कि वह
शोषित और वंचितों की आवाज बन खड़ा हुआ। उत्तर भारत के मध्यकालीन भक्ति आंदोलन में
राम भक्ति की निर्गुण शाखा का आश्रय लेकर कबीर ने जिस तरह तत्कालीन जड समाज को
झकझोरा, उसकी आज तक कोई मिसाल नहीं है।
स्वामी रामानंद ने कबीर
को कैसे चेताया और कितना चेताया, इसका कोई लेखा-जोखा किसी
के पास नहीं है। लेकिन यह जरूर है कि कबीर की भक्ति संवेदना में गुरु का स्थान
गोविंद से भी ज्यादा है। इसीलिए कबीर जब कभी स्वामी रामानंद का नाम लेते हैं तो
बड़े गौरव और श्रद्धा से लेते हैं - कहै कबीर दुविधा मिटी
गुरु मिल्या रामानंद।
सत्रहवीं सदी में हुए
मुहसिन फनी ने अपनी पुस्तक ‘दबिस्ताँ-ए-मजाहिब’ में लिखा है कि ‘कबीर जन्म से मुसलमान थे पर वे स्वामी रामानंद
के शिष्य बनना चाहते थे क्योंकि रामानंद ‘राम’ को जानते थे। एक बार काशी में पंचगंगा घाट की
सीढिय़ों पर रामानंद ने कबीर को देखा और ‘राम-राम’ बोले। कबीर ने भी ‘राम-राम’ बोलकर प्रत्युत्तर दिया और ‘राम’ से अपना सनातन संबंध जोड़ लिया।’
कबीर ने जो लिखा और कहा, उसके चार पुराने लिखित साक्ष्य मौजूद हैं। सबसे
पुराना रूप मिलता है सिखों के पवित्र ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में। दूसरा संत दादू दयाल की आज्ञा से कबीर, रैदास, नानक, नामदेव और दादू की वाणी के तैयार किए ‘पंचवाणी’ संकलन में। तीसरा रूप है दादू के प्रमुख शिष्य
रज्जबदास द्वारा संकलित संतवाणी ‘सर्वंगी’ में और चौथा है कबीर पंथ का अपना अभिलेख ‘बीजक’। अनेक प्रकार के पाठ
भेदों और सांप्रदायिक छवि का संबंध कबीर से बनता और बदलता रहा है। लेकिन इन चारों
के बीच मिले साहित्य में कबीर में जहां एक ओर तड़प और आंतरिक अकेलापन है वहीं
दूसरी ओर अंदर की मस्ती का ऐसा ज्वार भी है जो पूरी दुनिया को अपने भीतर समेट लेता
है। एक ओर अपनी भीतरी यात्रा में इतनी एकाग्रता है कि बाहर से कोई संबंध ही नहीं
है। दूसरी ओर गंदगी भरे अपने आसपास के समाज को परिवर्तित करने का पूरा अभियान है।
तभी तो कबीर में प्यार और रोष, दोनों का विरोधाभास है।
कभी अपने ‘राम’ की प्रेमिका बनकर उनसे मिलन की तीव्र उत्कंठा
तो कभी संसार को माया मानकर उसे ‘महाठगिनी’ कहकर उसकी भारी भर्त्सना।
जनश्रुति के अनुसार कबीर
के एक पुत्र कमाल और एक पुत्री कमाली थी। इनकी पत्नी का नाम लोई था। कबीर के लिए
उनका ‘करघा’ ही जीवन है क्योंकि वह ज्ञान और कर्म का उपदेश
देता है। इसी चरखे पर कबीर ने ‘झीनी झीनी-सी चदरिया’ बुनी थी। कबीर की पढ़ाई
बाहरी नहीं भीतरी थी। वे कहते हैं - मसि कागद छूयो नहिं कलम
गहि नहीं हाथ।
वैसे तो पूरा रामभक्ति
साहित्य सगुण उपासना को समर्पित है। वह नाम-रूप-लीला-धाम का भक्ति साहित्य है।
परंतु कबीर ने अपने राम को निर्गुण में खोजा। कबीर के राम निर्गुण हैं। वे
अकाल, अजन्मा, अनाम और अरूप हैं। वे बिना कान के सुनते हैं।
बिना पांव के चलते हैं और बिना हाथों के काम करते हैं। उन्हें साधक राम और रहीम के
नाम से जानते हैं। पर कबीर ने उस ब्रह्म को अपनी तरफ से एक प्यारा नाम ‘साहब’ दिया। वे कहते हैं कि निर्गुण राम भजहु रे भाई, अबिगत की गति लखी न जाई अर्थात निर्गुण राम को
भजो, जिसकी गति कोई नहीं
जानता।
एकेश्वरवाद कबीर को
स्वीकार है। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के अनेक अमर संत कबीर के समकालीन थे। इनमें
अनेक उनके गुरु स्वामी रामानंद के ही शिष्य हैं। रैदास, धन्ना, सैन और पीपा उनके साथ रहे। अनेक परचइयों में
कबीर के साथ इनका संवाद दर्ज है। इन सब संतों की भक्ति संवेदनाओं में कबीर का खास
स्थान है। यह विडंबना है कि संत साहित्य में निर्गुण तथा सगुण कवियों के बीच देखने
की कोशिश बहुत नहीं हुई। जबकि ये दोनों ही ईश्वर के राम नाम के आस्वादक हैं। इधर
सगुण भक्त सूरदास उस सरोवर की ओर चल रहे हैं, जहां रात नहीं होती तो उधर कबीर भी ‘हंसा नहाए मानसरोवर, ताल-तलैया क्यूं डोले’ से उसी मानसरोवर की ओर प्रस्थान कर रहे हैं।
यही कारण है कि उच्च आदर्श होने के नाते परपंरा ने इन सब को कवि नहीं बल्कि संत
माना। मीरा, तुलसीदास, सूरदास और नरसी में सगुण-निर्गुण अधिक
संश्लिष्ट है। वहीं कबीर, नानक, दादू और रामचरण रामस्नेही जैसे संत-कवि भी ‘राम’ नाम के सहारे ही परमात्मा तक अपनी पहुंच बना
रहे हैं। राम, गोविंद, हरि और कृष्ण ही इनके संबोध्य नाम हैं। हाँ, इनका अनुभव जरूर अपना अलग-अलग है। कबीर कहते
हैं - ऐसा कोई ना मिला राम भगति का मीत। तन मन सौंपे मिरग ज्यों सुन बधिक
को गीत।। ऐसी अभिव्यक्ति राम में डूबा हुआ कोई संपूर्ण प्रेमी ही कर सकता है, जिसकी अनुभूति का पाट चौड़ा हो और गहराई की
कहीं कोई थाह ही न हो। राम के साथ कबीर के सारे संबंध हैं। महात्मा कबीर को ही
भक्ति को चारों ओर फैलाने का यश मिला हुआ है- भक्ति द्राविड ऊपजी
ल्याये रामानंद। परगट करी कबीर ने सप्त द्वीप नव खंड।।
शास्त्री कोसलेन्द्रदास
असिस्टेंट प्रोफेसर-दर्शन
शास्त्र
ज.रा. राजस्थान संस्कृत
विवि, जयपुर
मो. 9214316999
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