भले ही संस्कृत का प्रभाव कम होता जा रहा हो, लेकिन देश-दुनिया में ऎसे सारथियों की कमी नहीं है, जो संस्कृत रूपी रथ को तेज रफ्तार देने में जुटे हैं। ये संस्कृत को जी रहे हैं, इनकी सांसों में संस्कृत बसती है। इस देवभाषा के लिए पूरी तरह समर्पित विद्वानों से रूबरू हुए शास्त्री कोसलेन्द्रदास।
"सम्प्रति वार्ता: श्रूयन्ताम्..।" प्रवाचक : बलदेवानंद सागर सुबह 6.55 बजते ही रेडियो पर आकाशवाणी से जो आवाज पूरा देश सुनता है, वह है-"इयम् आकाशवाणी,सम्प्रति वार्ता: श्रूयन्ताम्। प्रवाचक: बलदेवानंद सागर:।" 1974 में आकाशवाणी ने जब संस्कृत में रोज 5 मिनट के समाचारों का प्रसारण शुरू किया, तब से आज-तक 37 वर्षो में भारत की जनता संस्कृत की जिस आवाज को सबसे ज्यादा पहचानती है, वह आवाज है बलदेवानंद सागर की। पिछले चार दशकों से मीडिया में संस्कृत की जमकर पैरवी करने वाले सागर ने दूरदर्शन व आकाशवाणी कोे संस्कृत को आम नागरिक तक पहुंचाने का सशक्त साधन बनाया। पिछले 10 सालों से सागर दूरदर्शन में भी संस्कृत के प्रसार हेतु अनेक कार्यक्रम तैयार कर चुके हैं। 1952 में गुजरात के भावनगर में जन्मे सागर ने इंटरनेट के माध्यम से संस्कृत के समाचारों को विश्व के कोने-कोने तक पहुंचाया है। आज ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी व अमरीका जैसे अनेक देशों में संस्कृत समाचार नियमित रूप से सुने जा रहे हैं। सागर ने संस्कृत के अनेक काव्यों को अंग्रेजी, हिंदी व गुजराती में अनूदित कर पाठक संख्या में खूब इजाफा किया है। ब्रह्मसूत्र व उपनिषदों के ग्रंथों का संपादन करने के साथ ही "स्वर्णदेहाञ्जलि:" नामक ग्रंथ की संस्कृत में रचना करते हुए सागर ने "मीडिया में संस्कृत के उपयोग" पर विशेष काम किया। कंप्यूटर के लिए संस्कृत के सॉफ्टवेयर तैयार करना सागर की प्रमुख प्राथमिकता रही, जो संस्कृत के लिए सर्वाधिक महžव का काम है। प्रतिदिन संस्कृत के प्रयोग में आने वाले शब्दों को इकटा कर सागर उन्हें आम लोगों के जीवन में जोड़ने के बड़े प्रोजेक्ट पर इन दिनों काम कर रहे हैं। संस्कृत के महžव को साधारण व्यक्ति व आधुनिक दुनिया में पहुंचाने के उद्देश्य से सागर ने देश की राजधानी दिल्ली में संस्कृत संभाष्ाण के सौ से ज्यादा शिविर आयोजित किए हैं। "उद्घोषणा मर्मज्ञ" की उपाधि से विभूषित सागर इन दिनों "प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया में संस्कृत की जरूरत" पर विशेष्ा कार्य कर रहे हैं। विदेशों में फहराया संस्कृत का परचम आचार्य सत्यव्रत शास्त्री साहित्य की दुनिया में वह नाम है, जिन्हें पिछले छह दशकों से पूरे विश्व के भाषाई रंगमंच पर संस्कृत के महानायक के रूप में पहचाना जाता है। 1930 को लाहौर में जन्मे शास्त्री ने तीन महाद्वीपों के छह विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई। यूरोप, लातीन, उत्तरी अमरीका, कनाडा, दक्षिण-पूर्व एशिया व जर्मनी आदि देशों के साहित्यिक संसार में सत्यव्रत शास्त्री एक जाना-पहचाना नाम है। वाल्मीकि रामायण पर काम करते हुए किसी भी संस्कृत ग्रंथ पर भाषा विषयक अध्ययन सबसे पहले सत्यव्रत शास्त्री ने ही किया। वैश्विक साहित्य में संस्कृत की धूम मचाकर सत्यव्रत शास्त्री ने सैकड़ोें अंग्रेज विद्वानों को संस्कृत पढ़ने के लिए प्रेरित किया। 2005 में सात खंडों में लिखे "डिस्कवरी ऑफ संस्कृत टे्रजर्स" नामक इनके ग्रंथ ने पूरे विश्व में संस्कृत की धाक जमाई। गेटे, दांत, मोंताले, मिहाई एमेनेस्कू व एदिवत्र्सा जैसे अनेक पश्चिमी विद्वानों की प्रतिनिधि कविताओं को संस्कृत में उतारने का श्रेय भी एकमात्र सत्यव्रत शास्त्री को जाता है। सिल्पाकौर्न यूनिवर्सिटी ने सत्यव्रत शास्त्री को डी.लिट्. की उपाधि देते हुए "ए लिविंग लिजेंड इन दि फिल्ड ऑफ संस्कृत" अर्थात् "संस्कृत की चलती-फिरती किंवदंती" कहा है। सैकडों पुरस्कार ले चुके सत्यव्रत शास्त्री संस्कृत साहित्य में ज्ञानपीठ पुरस्कार लेने वाले अकेले विद्वान है। विदेशी का संस्कृत प्रेम देसी हुए नतमस्तक संस्कृत में ही सोचना, बोलना और लिखना, यह आदत है शिकागो विश्वविद्यालय सेे संस्कृत के सेवानिवृत्त प्रोफेसर शैल्डन पॉलाक की। पॉलाक उन चंद लोगों में से एक हंै जिनका जीवन सिर्फ संस्कृत और उसके विकास के लिए है। शैल्डन को जब कभी भारत आने का मौका मिलता है तो वे अपना पूरा वक्त यहां के संस्कृत विद्वानों के साथ तथा संस्कृत पाठशालाओं में गुजारते हैं। पॉलाक ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय से ग्रीक भाषा में गे्रजुएट करने के बाद 1973 में संस्कृत में एमए तथा 1975 में "संस्कृत और भारत का अध्ययन" विषय पर पीएचडी की डिग्री हासिल की। शिकागो यूनिवर्सिटी में 1989 से 2005 तक संस्कृत पढ़ाते हुए शैल्डन ने अपने जीवन का हर एक क्षण संस्कृत को समर्पित कर दिया। संस्कृत शब्दशास्त्र और भारत के बौद्धिक व साहित्यिक इतिहास में विशेष कार्य करने के साथ ही भारतीय इतिहास और उसके बढ़ते कदमों पर पहली बार खोजपूर्ण काम कर शैल्डन ने पूरे विश्व के विद्वानों को संस्कृत पढ़ने के लिए मजबूर कर दिया। अपने जीवन का लंबा समय "उपनिवेशवाद की पूर्व भूमिका में संस्कृत ज्ञान की प्रक्रिया" नामक बड़े शोध कार्य पर खर्च किया। संस्कृत के अनेक ग्रंथों को अंग्रेजी में अनूदित कर पॉलाक ने "संस्कृत के विदेशी प्रयोग" पर काम किया है। संस्कृत में दुर्लभ ग्रंथ "रसमंजरी" और "रसतरंगिणी" का पहले-पहल अंग्रेजी अनुवाद करने वाले पॉलाक की भारतीय सौंदर्य शास्त्र व भाषा शास्त्र पर प्रौढ़ चिंतनपरक पुस्तकें कोलंबिया यूनिवर्सिटी से प्रकाशित हैं। इन सबके बीच पॉलाक जिस काम के लिए सबसे ज्यादा जाने जाते हैं, वह है उनकी पुस्तक-"दि लैंग्वेज ऑफ दि गोड्स इन दि वल्र्ड ऑफ मैन"। सैकड़ों सम्मान व पुरस्कारों से विभूषित पॉलाक को 2009 में भारत के राष्ट्रपति की ओर से "राष्ट्रपति पुरस्कार" व 2010 में "पkश्री" सम्मान दिया गया। फिलहाल पॉलाक कोलंबिया में अंबेडकर संस्कृत फैलोशिप के माध्यम से वंचित समुदाय के छात्रों को संस्कृत पढ़ा रहे हैं। संस्कृत का संरक्षण मेरा उद्देश्य बा रह साल की उम्र में बिहार के भोजपुर सेे अपना गांव परसिया छोड़कर साधु बने स्वामी रामनरेशाचार्य संस्कृत में निरंतर लुप्त हो रही हजारों साल पुरानी न्याय दर्शन, वैशेषिक और वैष्णव दर्शन की परंपरा को पुनर्जीवित करने में लगे हुए हैं। काशी की विद्वत परंपरा के विद्वान आचार्य बदरीनाथ शुक्ल से 10 वर्षो तक विद्याध्ययन करने के बाद रामनरेशाचार्य ने ऋषिकेश के कैलाश आश्रम में बिना किसी जाति-पांति व वर्ग का भेद किए हजारों विद्यार्थियों व साधुओं को न्याय दर्शन, वैशेषिक और वैष्णव दर्शन पढ़ाया। संस्कृत के दुर्लभ व लगभग अप्राप्त ग्रंथों का प्रकाशन कर रामनरेशाचार्य ने विलुप्त होते अनेक ग्रंथों को भी बचाया है। अपने जीवन के छह दशक पूरे कर रहे रामनरेशाचार्य काशी में जगद्गुरू रामानंदाचार्य के मुख्य आचार्य पीठ "श्रीमठ" में 1988 से "जगद्गुरू रामानंदाचार्य" के पद पर अभिषिक्त होने के बाद भी अनेक देशी-विदेशी छात्रों को संस्कृत मे निबद्ध भारतीय दर्शन की जटिल शास्त्र प्रक्रिया को निरंतर सहज रूप से पढ़ा रहे हैं। देश के अनेक क्षेत्रों में संस्कृत विद्यालयों की स्थापना कर रामनरेशाचार्य विद्यार्थियों को सारी सुविधाएं भी निशुल्क ही उपलब्ध करवाते हैं। आदिवासी क्षेत्र में रामनरेशाचार्य ने संस्कृत की एक ऎसी अलख जगाई है कि वहां स्थापित विद्यालयों में हजारों छात्र समान रूप से बिना किसी भेद-भाव के संस्कृत पढ़ रहे हैं। संस्कृत के सारथी : चमूकृष्ण भाषाओं के महाभारत में संस्कृत की लगाम थामे चमूकृष्ण शास्त्री ने संस्कृत भारती के जरिए पिछले दो दशकों में देश-विदेश में 50 हजार संस्कृत संभाषण शिविर लगाकर लाखों लोगों को संस्कृत बोलना सिखाया है। कर्नाटक के तीन संस्कृत गांव भी इन्हीं की देन है, जहां सिर्फ संस्कृत बोली जाती है। जन्म लिया संस्कृत के लिए : रामकरण कैलिफोर्निया के बर्कले विश्वविद्यालय से संस्कृत भाषा वाङमय में शोध करके रामकरण शर्मा ने विदेशी विद्वानों को संस्कृत से सबसे ज्यादा जोड़ा। अनेक विश्वविद्यालयों के कुलपति रहे शर्मा ने पिछले 60 वर्षो में विदेशों में सैकड़ों कार्यक्रम आयोजित कर संस्कृत को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करने का काम किया है। |
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