Saturday, March 17, 2012

पूरी दुनिया के लिए है संस्कृत : पुष्पा दीक्षित

आधुनिक संस्कृत व्याकरण की जननी हैं पुष्पा दीक्षित। व्याकरण को पढ़ने की गणितीय विघि की निर्मात्री पुष्पा दीक्षित का अनूठा काम है यह। 32 ग्रंथों का संस्कृत में लेखन किया है उन्होंने। संस्कृत की साधना में रत 'वाचस्पति' जैसे अनेक अलंकरणों से विभूषित पुष्पा दीक्षित से एक खास बातचीत।

संस्कृत की नई गणितीय विघि क्या है?
महर्षि पाणिनि का लिखा 'अष्टाध्यायी' ग्रंथ है, जो करीब 3 हजार वर्षो पहले लिखा गया। अष्टाध्यायी ही सारी संस्कृत की जड़ है। पाणिनि को आज तक जिस तरह से व्याख्यायित किया गया है, वो पद्धति ठीक नहीं थी। 

मैंने इस विषय पर काम किया और मैं यह मानती हूं कि पाणिनि ने जिस प्रक्रिया से हजारों वर्षो पहले शब्दों को देखा था, मैंने लुप्तप्राय उसी पद्धति को पुनर्विकसित किया है। इससे यह परिणाम सामने आया कि जिस दुरूह और श्रमसाध्य पाणिनीय व्याकरण को पढ़ने में बारह वर्ष लग जाते थे, उसमे मैंने ऎसे सिस्टम डवलप किए हैं कि वही व्याकरण मात्र तीन महीने में ही लगभग पूरी पढ़ ली जाती है।

आठ खंडों में 'अष्टाध्यायी सहज बोध' ग्रंथ की रचना की है, जिसमें पाणिनीय व्याकरण को पढ़ने की सर्वथा नवीन गणितीय विघि का वर्णन है। इसके अतिरिक्त 'अग्निशिखा' इत्यादि 5 काव्य-महाकाव्यों का प्रणयन तथा संपादन भी किया है।

आपने संस्कृत पढ़ी, इसमें परिवार और समाज का कितना सहयोग रहा?
संस्कृत के क्षेत्र में महिलाओं की कमी है। महिलाएं अब तक भी संस्कृत और इसके महžव को समझ नहीं पाईं। जहां तक मुझे सहयोग की बात है तो सबसे बड़ा सहारा तो मैं केवल ईश्वर को ही मानती हूं, पर परिवार का मुझे सदा सकारात्मक सहयोग मिला और उसी के बलबूते मैं आगे बढ़ पाई हूं। 

संस्कृत में पुरू षों का वर्चस्व माना जाता है, ऎसे में महिला होने के नाते आप कैसा महसूस करती हैं?
नहीं, ऎसा बिल्कुल नहीं है। जब तक महिलाएं अपनी झिझक मिटाकर संस्कृत की दुनिया में प्रवेश ही नहीं करेंगी तो उनका उत्साह इस ओर बढ़ेगा कैसे? यह बात सर्वथा निर्मूल और दूरी बढ़ाने वाली है कि çस्त्रयां अब तक संस्कृत से दूर रहीं। केवल सृष्टि के संचालन में ईश्वर ने नर-नारी का भेद किया है और उसमें भी सृष्टि की रचना में पुरूष की बजाय नारी पर ही अघिक विश्वास किया है। 

संस्कृत में महिला केंद्रित लेखन हुआ या आधुनिक दौर में हो रहा है?
मैंने कभी संस्कृत का इस दृष्टि से लिंग आधारित विभाजन किया ही नहीं। 'स्त्री केंद्रित लेखन' के फैशन के कारण ही हिंदी भरपूर नुकसान उठा रही है। जहां तक नारी को केंद्र मानकर लेखन की बात है, तो महर्षि वाल्मीकि के 24 हजार श्लोकों के महाकाव्य 'रामायण' में भी उन्होंने यह घोषणा की है कि रामायण श्रीराम का नहीं,  वरन संपूर्ण रूप से माता सीता का ही जीवन चरित्र है। 

उसके बाद 'महाभारत' में भी द्रौपदी की विजय गाथा के रूप में नारी के अपमान का परिणाम दिखाया गया है। पर एक बात मुझे हमेशा परेशान करती है कि चाहे संस्कृत में लिखा जाए या हिंदी में, उसी साहित्य को अच्छा माना जा रहा है, जिसमें महिलाओं पर अत्याचार, दहेज की प्रताड़ना, ससुराल के वीभत्स चित्रण या सास का अमानवीय चेहरा जैसी निचले स्तर की हल्की बातें हो। विडंबना है कि ऎसे हल्के साहित्य को  पुरस्कार भी मिल रहे हैं। मैं ऎसे लेखन कोे सिरे से खारिज करती हूं। 

संस्कृत में कैसी संभावनाएं पाती हैं?
संस्कृत में अपार संभावनाएं हैं। मुझे लगता है कि किसी भी विषय में जो प्रतिभावान होता है, उसे आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। उसे अपने-आप सम्मान मिलता है और रोजगार मिलता है। संस्कृत में आज सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें निकल रही हैं। संस्कृत के 15 विश्वविद्यालय और 10 से ज्यादा अकादमियां पूरे देश में हैं और विदेशों में भी लाखों लोग संस्कृत पढ़ रहे हैं। 

संस्कृत हमारी सनातन विरासत है। इसे सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी हमारी है, पर हमारे देश का जनमानस संस्कृत के प्रति दूषित है। आज बच्चों को हम सब कुछ पढ़ाना चाहते हैं, पर संस्कृत नहीं! क्या यही हमारी प्रतिबद्धता है संस्कृत और अपने पूर्वजों के प्रति? आज भागवत जैसे ग्रंथ की कथा कहने वाले कथावाचकों को सामान्य संस्कृत का ज्ञान भी नहीं है। संस्कृत देश की आत्मा है, इसलिए इसे छोड़कर हम आगे नहीं बढ़ सकते।

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