जिस संवत्सर के आधार पर हमारा लोक जीवन चलता है और उल्लास के सारे पर्व मनाए जाते हैं, वह है हमारा अपना संवत्सर-विक्रम संवत्सर। यह संवत 2069 वर्ष (ईसा पूर्व 57 वर्ष) पहले प्रारंभ हुआ था। उज्ौन के महाराज विक्रमादित्य के नाम से यह विक्रम संवत्सर के नाम से जाना जाता है। महाराज विक्रमादित्य के विश्वविजय की ऎतिहासिक गाथा कहता यह संवत्सर उनके सुशासन काल के समय की भी सूचना देता है और भारत के तात्कालिक इतिहास की भी। गणितज्ञों का मानना है कि अनंत काल से चली आ रही काल की अनवरत परंपरा को समझने के लिए समय को विभिन्न मानकों द्वारा ही समझा जा सकता है। समय की सबसे बडी इकाई "युग" और उससे छोटी इकाई "संवत्सर" के रूप में होती है। संवत्सर के बाद अवरोही क्रम से काल गणना को अयन, ऋतु, मास, पक्ष, अहोरात्र, घंटा, मिनट और सैकंड के रूप में जाना जाता है। इन सारी गणनाओं के होने के बाद भी किसी विशिष्ट अवधि को जानने में संवत्सर अर्थात वर्ष का महžव ही सर्वाधिक होता है। आज भी इतिहास की जानकारी संवत या प्रकारांतर से कहें तो ईस्वी सन से ही की जाती है।
भारतीय इतिहास की जानकारी नक्षत्र काल, युगादि संवत, श्रीरामराज्य संवत, युधिष्ठिर संवत, विक्रम संवत और शक संवत से होती है। एक संवत्सर पूरा एक वर्ष माना जाता है, जिसमें चैत्र, वैशाख व ज्येष्ठ इत्यादि बारह महीने होते हैं। ज्योतिष शास्त्र में ये संवत्सर संयात्मक दृष्टि से 60 होते हैं। साठ संवत्सर पूरे होते ही पुन: इनका क्रम प्रारंभ हो जाता है। इन संवत्सरों को तीन समान भागों में बांटा गया है। ये तीन भाग हैं-ब्रह्म विंशति, विष्णु विंशति और रूद्र विंशति। प्रत्येक विंशति में 20 संवत्सर होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक 60 वर्षो में इन संवत्सरों की एक आवृत्ति पूरी होती है। यही कारण है कि हमारे समाज में किसी व्यक्ति की 60 वर्ष की आयु पूरी होने पर "षष्ठी पूर्ति महोत्सव" मनाया जाता है। इस परंपरा से ही भारत सरकार सेवा नियमों में सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष मानती है। इस संवत्सर का केवल बाहरी ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जुड़ाव भी हमारी चेतना और हमारे जीवन से है।
यदि विशुद्ध चिंतन तक ही बात सीमित रखी जाए तो संपूर्णत: वैज्ञानिक स्वरूप विश्व में केवल भारतीय संवत्सर का ही सिद्ध हो पाता है। विभिन्न राष्ट्रों या धर्मो में मास या संवत्सर की गणना में सूर्य और चंद्रमा की गति को माना जाता है। इसलिए उन लोगों की यह समस्या है कि कभी दिन कम पड़ जाते हैं और कभी ज्यादा। भारतीय संवत्सर में सूर्य और चंद्रमा दोनों ही काल गणना में सहायक है। अत: तिथियों का निर्घारण सूर्य और चंद्र दोनों की गति से होता है। पूर्णिमा चंद्रमा के परम विकास को प्रकट करती है तो अमावस्या उसके अभाव को। भारत की आत्मा से जुड़े जितने भी त्योहार हैं, वे सारे इसी संवत्सर के सहारे चलते हैं। इसका सीधा-सा फल यह हुआ कि हमारी प्रकृति और उसके अनुरूप सारे आहार-विहार इस संवत्सर के हिसाब से ही निर्घारित किए गए हैं। जरा गौर से देखिए, "वाल्मीकि रामायण" में लिखा है कि श्रीराम के धरती पर अवतरित होते समय ऎसा मौसम था, जिसे न तो अधिक सर्दी कहा जा सकता है और न ही अधिक गर्मी। श्रीराम का अवतार काल वसंत की पवित्रता में है।
अब यदि हमारी काल गणना गड़बड़ाने लगती तो श्रीराम का जन्मदिन कभी हमें भीषण गर्मी में मनाना होता और कभी सर्दी में। इसी तरह हमारे सारे त्योहारों का मूल स्वरूप ही नष्ट हो गया होता। हमारे त्योहारों में और अब तक की सुदीर्घ परंपरा में जो एकात्मकता है, उसके भीतर छिपी है ऋषियों की वर्षो पहले की गणितीय दृष्टि। भारतीय संवत्सर उस परंपरा का निर्वाह करता दिखाई देता है, जहां बाहरीपन से दूर जाकर एक ऎसा सांस्कृतिक समृद्धि का महाभाव छिपा है, जो हर बार नया यौवन धारण कर प्रकट होता है। न कोई प्रदर्शन और न ही भौतिकता का भद्दा दिखावा। यदि इस संवत्सर में भारत और उसकी भारतीयता से देखा जाए तो यह संवत्सर हमें एक ऎसी आध्यात्मिक चेतना व ऊर्जा प्रदान करता है, जो सदा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की राह दिखाती है। कन्या के पूजन को जोड़कर धर्म ने नारी की परमोच्च सत्ता को शास्त्रीय आधार प्रदान किया है।
कृषक मन की समझ के कारण ही जौ को उगाकर उसे देवी के चरणों में समर्पित करने का विशाल भाव ऋषियों के मन में आया होगा। पूरी कृषि देवी के चरणों में चढ़कर पवित्र होती है। कन्याओं के पवित्र मुख से उसे झूठा करवाकर श्रद्धा का सर्वोत्तम स्वरूप। घर-घर में "रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।" की मंगल ध्वनि के साथ ही देवी से श्रद्धा, भक्ति और समर्पण की याचना। हां, ये जरूर है कि परंपराओं को ढोते-ढोते हम मूल बात को भूल गए। कन्या के चरण पखारेंगे। उसे दक्षिणा देंगे। उससे ज्ञान, शक्ति और शत्रुनाश का वर मांगेंगे। वही कन्या सरस्वती का रूप धारण कर धरती पर उतरेगी तो उसे कोख में ही नष्ट कर डालेंगे। क्या यही है हमारी आस्था का सच? क्या इसे ही नवरात्र का "देवी पूजन" कहते हैं?
यह संवत्सर हमें आनंद और परंपरा के प्रवाह का शीतल स्पर्श बांटने भी आता है। संवत्सर के आने के बाद अब यह जरूरी हो गया है कि हम इसकी उस प्राचीनता को समझें, जिसे हमारे ऋषि-मुनि सनातन विरासत के रूप में हमारे लिए छोड़कर गए हैं। यह संवत्सर भारत की प्रधान आत्मा है। आओ, अपनी अंजलि में अक्षत, पुष्प और पवित्र जल लेकर इस संवत्सर का अभिनंदन करें। इसे पाद्य, अध्र्य, आचमन और मन मंदिर में बैठाने के लिए स्वर्ण का सुंदर आसन भेंट करें, तभी "विश्वावसु" नाम का यह नया संवत्सर हमें सुख, शांति और समृद्धि का ऎसा आशीर्वाद देगा, जिसकी आज हमें सबसे ज्यादा जरूरत है।
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