Thursday, August 2, 2012

भाषा के महानायक : तुलसीदास

आज तुलसीदास को याद करना न केवल इसलिए जरूरी है, ताकि वे भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी के सबसे बडे महाकाव्य "श्रीरामचरितमानस" के लेखक हैं, बल्कि उन्हें याद करना इस कारण भी आवश्यक है कि वे एक संघर्ष के प्रतीक हैं। राज जब जनता से दूर चला जाए या जनता जब राज से दूर हो जाए तो अमर संघष्ाü की गाथा कहती "रामायण" पढ़नी चाहिए। "जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।" की घोषणा करते तुलसीदास पांच सौ साल पहले उस राजा को नरक में फेंक देते हैं, जिसे अपने ही सुख-संसाधनों में वृद्धि की आकांक्षा हो और जनता के सुख-चैन से जिसे कोई मतलब ही नहीं हो। राजधर्म, राष्ट्रधर्म, प्रजाधर्म और इन सबसे बढ़कर मानवधर्म की बात करने वाली "रामचरितमानस" कोई ग्रंथ नहीं, बल्कि सजीव प्रेरणा देता भारत का वह इतिहास है, जिसमें अब तक की मानव संस्कृति के सर्वोत्कृष्ट अनुपम श्रीराम विराजमान हैं। भला, सारी दुनिया में श्रीराम का विकल्प किसके पास है? विश्व के किसी भी इतिहास, भाषा, जाति, पंथ और धर्म के पास मानवता की परिभाषा करती "रामायण" जैसा महाकाव्य है! 

तुलसीदास जानते थे कि संसार में जब भी मानवता की स्थापना की बात चलेगी तो समाज को श्रीराम जैसे सर्वश्रेष्ठ प्रतिमान की जरूरत पडेगी। तभी तो तुलसीदास के राम एक राजा या राजकुमार न होकर प्रजा के प्रिय हैं, जिन्हें 14 वर्षो का वनवास होने पर अयोध्या की सारी प्रजा ही उनके साथ चल देती है।

तुलसीदास भारत की सुप्त चेतना को चेताने वाले अवतारी महापुरूष हैं। यह कितने आश्चर्य की बात है कि तुलसीदास जैसे महानतम कवि पर साहित्यिक आलोचना की एक भी अच्छी और संपूर्ण पुस्तक आज तक नहीं है। वैसे तो श्रद्धापूरित और भक्तिपूरित आलोचना साहित्य की कमी नहीं है- मणो और टनों के हिसाब से विश्वविद्यालयों एवं मठों में तुलसीदास के साहित्य पर विचारों का "कारोबार" हुआ है। एक शोध के मुताबिक भारत और भारत से बाहर हिंदी में एक हजार से भी ज्यादा पीएचडी सिर्फ तुलसीदास पर हो चुकी हैं। सवाल है कि इस विशाल विचार भंडार में तुलसीदास पर सचमुच की साहित्यिक आलोचना कितने प्रतिशत हुई है? ले-देकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामविलास शर्मा का छिट-पुट लेखन ही तुलसीदास को नया साहित्यिक आधार देने का काम कर रहा है। 

यह शायद शर्मनाक सत्य है कि तुलसीदास पर जो काम साहित्य के विद्वानों को करना चाहिए, वह शायद करोड़ों रूपए खर्च करने के बाद भी नहीं हो पाया है। आज के विद्वानों को "पुरस्कार ग्रहण" और निजी प्रशंसा से भरी कविताएं लिखने से फुरसत मिले तो कभी वे तुलसीदास पर "कृपा" करें, तुलसीदास को पढें और अपने चरित्र से तुलसीदास बनने की कोशिश करें। तुलसीदास की रामचरितमानस किसी पुरस्कार या प्रशंसा के लिए नहीं लिखी गई, बल्कि इसमें तो तात्कालिक परिस्थितियों में सोते भारत को जगा देने की ललक है। मुगल आक्रांताओं से जूझते हिंदू के हाथ में दुनिया के सबसे पुराने सनातन धर्म को बचाने के लिए श्रीराम का विराट धनुष देने की चेष्टा है। शत्रु विजय के लिए निकल पड़े वीरों को राष्ट्र व चरित्र की रक्षा के लिए मर-मिटने की गाथा है। 1927 में रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं, बल-वैभव-विक्रमविहीन यह जाति हुई जब सारी/ जीवनरूचि घट चली हट चली जग से दृष्टि हमारी/ इतने में सुन पड़ी अतुल-सी तुलसी की बर बानी/ जिसने भगवत्कला लोक के भीतर की पहचानी। तुलसीदास विश्वकवि हैं और उनकी लिखी रामचरितमानस संसार की सभी भाषाओं के बीच स्वीकृत सर्वश्रेष्ठ रचना है।

भारत के एक लंबे-चौड़े हिंदी क्षेत्र में तुलसीदास कवि से ज्यादा एक समर्पित रामभक्त और धर्म तथा लोक-व्यवस्थापक के रूप में एवं उनकी रचना "रामचरितमानस" एक काव्य ग्रंथ से ज्यादा धर्म ग्रंथ के रूप में अधिक मान्य है। तुलसीदास का लोकप्रियता का आधार रामचरितमानस ही है। रामचरितमानस के कारण ही तुलसीदास भारत के उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग में समान रूप से प्रतिष्ठित हैं। यही कारण है कि आज भारत में लगभग पूरी हिंदी पट्टी में रामचरितमानस का अखंड पाठ होता है, उसे लेकर तरह-तरह के आयोजन-समारोह होते हैं, जिनमें लोगों की भारी संख्या जुटती है। ऊंच-नीच का कोई भेद ही नहीं है ऎसे आयोजनों में। गांव-गांव होती रामलीलाओं में तुलसीदास की रामचरितमानस लोगों की कंठहार बनी हुई है। श्रीराम को लोकव्यापी और अत्यंत लोकप्रिय बनाने का काम भी रामचरितमानस में तुलसीदास ने किया। रामचरितमानस लोगों के लिए केवल काव्य भर ही नहीं है, बल्कि एक महान धार्मिक ग्रंथ है। श्रीराम की उदारतम आकृति को लोगों के बीच प्रतिष्ठित कर तुलसीदास ने सारे मानव समाज को एक मंगलकारी रामकाव्य दिया, जिसे वे खुद मंगलकारी व अमंगलहारी कहते हैं। तुलसीदास के राम आदर्श नायक , पुत्र, भाई, पति व जनता के प्रेमी हैं।

तुलसीदास को मानने के जो लाभ हैं, उसमें सबसे अच्छा तो यही है कि तुलसीदास सारे संसार को राममय देखकर आपसी खींचतान और वैर-भाव को मिटाने का प्रयास करते हैं। आज जब तुलसीदास हमारे बीच रामचरितमानस और विनयपत्रिका के रूप में विराजमान हैं तो हमें इस बात को जानना ही चाहिए कि आखिर तुलसीदास किससे संघर्ष कर रहे थे और क्यो? भारत को जगाने के लिए तुलसीदास को राम की जरूरत थी। आज जब हमारे चारों ओर अपने ही लोगों की धर्मदृष्टि बदल गई। तुलसीदास हममें से ही कोई है, जरूरत बस उसके ईमानदार रामभक्त होने और उसे महसूस करने की है।

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