आज से नवरात्र महोत्सव के आरंभ होते ही नौ दिनों के व्रत-जप-तप-अनुष्ठान को
समेटते हुए हरेक व्यक्ति के जीवन में पूजा-उपासना शुरू हो रही है। शरत्काल
के पवित्र आश्विन मास में शुभ्र चांदनी को फैलाते शुक्ल पक्ष में घर-घर
में "दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोùस्तु ते।" की शास्त्रीय
ध्वनि सुनाई देने लगी है। ये मंत्र वे हैं, जिन्हें शताब्दियों से हमारी
संस्कृति में भगवती से वर प्राप्ति के लिए जपा जाता है। दुर्गा पूजा,
शारदीय नवरात्र और महाशक्ति अनुष्ठान-तीन नाम पर त्योहार एक। नवरात्र
अर्थात् जौ में उग आए नन्हें-नन्हें अंकुरों तथा पूरे नौ दिनों तक घर-आंगन
में आनंद प्रसाद बांटती कन्यारूपिणी शक्ति-कुमारी का पूजन-अर्चन-वंदन।
हमारे यहां नवरात्र वर्ष में चार बार आते हैं। दो बार प्रत्यक्ष व दो बार
गु# रूप में, लेकिन इनमें प्रत्यक्ष रूप में आने वाले शारदीय नवरात्र सबसे
ज्यादा प्रशस्त हंै।
नवरात्र हमारा सांस्कृतिक पर्व हैं। यह साधना व संयम के मनोभावों को प्रकट करने का पर्व-काल है। कभी इन्हीं नौ दिनों में भगवान् श्रीराम ने अत्याचारी रावण को मारने के लिए किष्किंधा में प्रवर्षण पर्वत पर "शक्ति पूजा" की थी। अधर्म के थपेड़े खा रहे पांडवों को महाभारत के धर्म युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए श्रीकृष्ण ने इन्हीं नौ दिनों में "देवी पूजा" करने का उपदेश दिया था। भारत के धर्मिक इतिहास में नवरात्र का उल्लेख वैदिक काल से है। इसी कारण घर-घर में चाहे और किसी त्योहार पर पूजन-उत्सव भले न हो, लेकिन दुर्गा-पूजा के उत्सव का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार स्वच्छ दीवार पर सिंदूर से देवी की मुख-आकृति बना ली जाती है। सर्वशुद्धा माता दुर्गा की जो तस्वीर मिल जाए, वही चौकी पर स्थापित कर दी जाती है, परंतु देवी की असली प्रतिमा तो "घट" है। घट पर घी-सिंदूर से कन्या चिह्न और स्वस्तिक बनाकर उसमें देवी का आह्वान किया जाता है। देवी के दायीं ओर जौ व सामने हवनकुंड़! नौ दिनों तक नित्य देवी का आह्वान फिर स्नान, वस्त्र व गंध आदि से षोडशोपचार पूजन। नैवेद्य में पतासे और नारियल तथा खीर। पूजन तथा हवन के बाद "दुर्गास#शती" का पाठ।
शास्त्र कहते हैं कि आदिशक्ति का अवतरण सृष्टि के आरंभ में हुआ था। कभी सागर की पुत्री सिंधुजा-लक्ष्मी तो कभी पर्वतराज हिमालय की कन्या अपर्णा-पार्वती। तेज, द्युति, दीप्ति, ज्योति, कांति, प्रभा और चेतना तथा जीवन शक्ति संसार में जहां कहीं भी दिखाई देती है, वहां देवी का ही दर्शन होता है। ऋषियों की विश्व-दृष्टि तो सर्वत्र विश्वरूपा देवी को ही देखती है, इसलिए माता दुर्गा ही महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। देवीभागवत में लिखा है कि देवी ही ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश का रूप धर संसार का पालन और संहार करती हैं। देवी सारी सृष्टि को उत्पन्न तथा नाश करने वाली परम शक्ति है। देवी ही पुण्यात्माओं की समृद्धि एवं पापाचारियों की दरिद्रता है। जगन्माता दुर्गा सुकृती मनुष्यों के घर संपत्ति, पापियों के घर में दुर्बुद्धि रूपी अलक्ष्मी, विद्वानों के ह्वदय में बुद्धि व विद्या, सज्जनों में श्रद्धा व भक्ति तथा कुलीन महिलाओं में लज्जा एवं मर्यादा के रूप में निवास करती है। मार्कण्डेयपुराण कहता है कि हे देवि! तुम सारे वेद-शास्त्रों का सार हो। कूर्मपुराण में धरती की स्त्री का पूरा जीवन आकाश में रहने वाली नवदुर्गा की मूर्ति मे स्पष्ट रूप से बताया गया है। जन्म ग्रहण करती हुई कन्या "शैलपुत्री", कौमार्य अवस्था तक "ब्रह्मचारिणी" तथा विवाह से पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल व पवित्र होने से "चंद्रघंटा" कहलाती है। नए जीव को जन्म देने हेतु गर्भधारण करने से "कूष्मांडा" व संतान को जन्म देने के बाद वही स्त्री "स्कंदमाता" के रूप में होती है।
संयम व साधना को धारण करने वाली स्त्री "कात्यायनी" एवं पतिव्रता होने के कारण अपनी व पति की अकाल मृत्यु को भी जीत लेने से "कालरात्रि" कहलाती है। सारे संसार का उपकार करने से "महागौरी" तथा धरती को छोड़कर स्वर्ग प्रयाण करने से पहले पूरे परिवार व सारे संसार को सिद्धि व सफलता का आशीर्वाद देती नारी "सिद्धिदात्री" के रूप में जानी जाती है। धरती पर जब देवी स्वरूप धारण कर उतरती है तो वह रूप भी प्रकृति में सबसे निराला, कोमल तथा बेजोड़ होता है। भारतीय मन ने नारी में भी तेज और दीप्ति का प्राधान्य देखा है। इसी से हमारे यहां पर नारी के नाम में "देवी" शब्द जोड़ा जाता है। आजकल नई पीढ़ी की महिलाएं अपने नाम के आगे "देवी" शब्द लगाना भले ही पसंद न करती हों, पर है यह बड़ा ही अर्थ-गंभीर और महिमामय शब्द। कुंआरी कन्याओं के नाम के आगे "कुमारी" व विवाहित महिलाओं के नाम में "देवी" शब्द जोड़कर ऋषियों ने स्पष्ट किया था कि प्रत्येक नारी दैदीप्यमान ज्योतिर्मय सत्ता है। चरणों में कुंकुम लगाए व नूपुर झंकार की मधुर ध्वनि सुनाती देवी का धरती पर साक्षात् अवतरण है-नारी। देवी स्वयं कहती है कि पृथ्वी पर सारी çस्त्रयों में जो भी सौभाग्य या सौंदर्य है, वह पूरी तरह से मेरा ही है। तभी तो अष्टमी और नवमी को घर-घर में देवी की पूजा कन्या के रूप में होती है।
हम कन्याओं के पग पखारते हैं, उन्हें दक्षिणा देते हैं। उनसे आयु और ऎश्वर्य का आशीर्वाद मांगते हैं, किंतु वही लक्ष्मी और सरस्वती-स्वरूपिणी कन्या जब हमारे घर कोख में उतरती है तो हम उसे नष्ट कर डालते हैं! क्या यही है दुर्गा पूजा और हमारी श्रद्धा का सत्य? वस्तुत: देवी किसी पत्थर की मूर्ति में नहीं वह तो केवल नारी में विराजमान है। वह देवी ही हमें माता के रूप में जन्म देती है। पत्नी के रूप में सुख व पुत्री बनकर आनंद का प्रसाद बांटती है। आओ, हम भी शोक-मोह-भय को दूर करती देवी का पूजन करें और उनसे सच्चरित्र तथा शक्ति का आशीर्वाद मांगें-दुर्गा क्षमा शिवा धात्री नारायणी नमोùस्तु ते।
नवरात्र हमारा सांस्कृतिक पर्व हैं। यह साधना व संयम के मनोभावों को प्रकट करने का पर्व-काल है। कभी इन्हीं नौ दिनों में भगवान् श्रीराम ने अत्याचारी रावण को मारने के लिए किष्किंधा में प्रवर्षण पर्वत पर "शक्ति पूजा" की थी। अधर्म के थपेड़े खा रहे पांडवों को महाभारत के धर्म युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए श्रीकृष्ण ने इन्हीं नौ दिनों में "देवी पूजा" करने का उपदेश दिया था। भारत के धर्मिक इतिहास में नवरात्र का उल्लेख वैदिक काल से है। इसी कारण घर-घर में चाहे और किसी त्योहार पर पूजन-उत्सव भले न हो, लेकिन दुर्गा-पूजा के उत्सव का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार स्वच्छ दीवार पर सिंदूर से देवी की मुख-आकृति बना ली जाती है। सर्वशुद्धा माता दुर्गा की जो तस्वीर मिल जाए, वही चौकी पर स्थापित कर दी जाती है, परंतु देवी की असली प्रतिमा तो "घट" है। घट पर घी-सिंदूर से कन्या चिह्न और स्वस्तिक बनाकर उसमें देवी का आह्वान किया जाता है। देवी के दायीं ओर जौ व सामने हवनकुंड़! नौ दिनों तक नित्य देवी का आह्वान फिर स्नान, वस्त्र व गंध आदि से षोडशोपचार पूजन। नैवेद्य में पतासे और नारियल तथा खीर। पूजन तथा हवन के बाद "दुर्गास#शती" का पाठ।
शास्त्र कहते हैं कि आदिशक्ति का अवतरण सृष्टि के आरंभ में हुआ था। कभी सागर की पुत्री सिंधुजा-लक्ष्मी तो कभी पर्वतराज हिमालय की कन्या अपर्णा-पार्वती। तेज, द्युति, दीप्ति, ज्योति, कांति, प्रभा और चेतना तथा जीवन शक्ति संसार में जहां कहीं भी दिखाई देती है, वहां देवी का ही दर्शन होता है। ऋषियों की विश्व-दृष्टि तो सर्वत्र विश्वरूपा देवी को ही देखती है, इसलिए माता दुर्गा ही महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। देवीभागवत में लिखा है कि देवी ही ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश का रूप धर संसार का पालन और संहार करती हैं। देवी सारी सृष्टि को उत्पन्न तथा नाश करने वाली परम शक्ति है। देवी ही पुण्यात्माओं की समृद्धि एवं पापाचारियों की दरिद्रता है। जगन्माता दुर्गा सुकृती मनुष्यों के घर संपत्ति, पापियों के घर में दुर्बुद्धि रूपी अलक्ष्मी, विद्वानों के ह्वदय में बुद्धि व विद्या, सज्जनों में श्रद्धा व भक्ति तथा कुलीन महिलाओं में लज्जा एवं मर्यादा के रूप में निवास करती है। मार्कण्डेयपुराण कहता है कि हे देवि! तुम सारे वेद-शास्त्रों का सार हो। कूर्मपुराण में धरती की स्त्री का पूरा जीवन आकाश में रहने वाली नवदुर्गा की मूर्ति मे स्पष्ट रूप से बताया गया है। जन्म ग्रहण करती हुई कन्या "शैलपुत्री", कौमार्य अवस्था तक "ब्रह्मचारिणी" तथा विवाह से पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल व पवित्र होने से "चंद्रघंटा" कहलाती है। नए जीव को जन्म देने हेतु गर्भधारण करने से "कूष्मांडा" व संतान को जन्म देने के बाद वही स्त्री "स्कंदमाता" के रूप में होती है।
संयम व साधना को धारण करने वाली स्त्री "कात्यायनी" एवं पतिव्रता होने के कारण अपनी व पति की अकाल मृत्यु को भी जीत लेने से "कालरात्रि" कहलाती है। सारे संसार का उपकार करने से "महागौरी" तथा धरती को छोड़कर स्वर्ग प्रयाण करने से पहले पूरे परिवार व सारे संसार को सिद्धि व सफलता का आशीर्वाद देती नारी "सिद्धिदात्री" के रूप में जानी जाती है। धरती पर जब देवी स्वरूप धारण कर उतरती है तो वह रूप भी प्रकृति में सबसे निराला, कोमल तथा बेजोड़ होता है। भारतीय मन ने नारी में भी तेज और दीप्ति का प्राधान्य देखा है। इसी से हमारे यहां पर नारी के नाम में "देवी" शब्द जोड़ा जाता है। आजकल नई पीढ़ी की महिलाएं अपने नाम के आगे "देवी" शब्द लगाना भले ही पसंद न करती हों, पर है यह बड़ा ही अर्थ-गंभीर और महिमामय शब्द। कुंआरी कन्याओं के नाम के आगे "कुमारी" व विवाहित महिलाओं के नाम में "देवी" शब्द जोड़कर ऋषियों ने स्पष्ट किया था कि प्रत्येक नारी दैदीप्यमान ज्योतिर्मय सत्ता है। चरणों में कुंकुम लगाए व नूपुर झंकार की मधुर ध्वनि सुनाती देवी का धरती पर साक्षात् अवतरण है-नारी। देवी स्वयं कहती है कि पृथ्वी पर सारी çस्त्रयों में जो भी सौभाग्य या सौंदर्य है, वह पूरी तरह से मेरा ही है। तभी तो अष्टमी और नवमी को घर-घर में देवी की पूजा कन्या के रूप में होती है।
हम कन्याओं के पग पखारते हैं, उन्हें दक्षिणा देते हैं। उनसे आयु और ऎश्वर्य का आशीर्वाद मांगते हैं, किंतु वही लक्ष्मी और सरस्वती-स्वरूपिणी कन्या जब हमारे घर कोख में उतरती है तो हम उसे नष्ट कर डालते हैं! क्या यही है दुर्गा पूजा और हमारी श्रद्धा का सत्य? वस्तुत: देवी किसी पत्थर की मूर्ति में नहीं वह तो केवल नारी में विराजमान है। वह देवी ही हमें माता के रूप में जन्म देती है। पत्नी के रूप में सुख व पुत्री बनकर आनंद का प्रसाद बांटती है। आओ, हम भी शोक-मोह-भय को दूर करती देवी का पूजन करें और उनसे सच्चरित्र तथा शक्ति का आशीर्वाद मांगें-दुर्गा क्षमा शिवा धात्री नारायणी नमोùस्तु ते।
No comments:
Post a Comment