संस्कृत दिवस मनाने के पीछे जो निहितार्थ हैं, वे इस प्राचीनतम भाषा के संरक्षण से जुड़े हैं। इंदिरा गांधी जब भारत की प्रधानमंत्री थी तो संस्कृत के पारंपरिक अध्ययन-अध्यापन की जमीनी हकीकत जानने के लिए उन्होंने संस्कृत विद्वानों से परामर्श लिया। परिणामस्वरूप संस्कृत शिक्षा को मजबूती देने के लिए एक कमेटी बनी। इसमें सुनीतिकुमार चाटुज्र्या और वी. राघवन् जैसे शिखरस्थ विद्वान् शामिल थे। इस कमेटी ने संस्कृत की अभिवृद्धि के लिए कई सिफारिशें की, उनमें एक यह भी थी कि केंद्र और राज्यों की सरकारें किसी एक विशेष दिन को संस्कृत दिवस के रूप में आरक्षित करे। निष्कर्षस्वरूप तत्कालीन शिक्षा मंत्री डॉ. वीकेआरवी राव ने 1969 से प्रतिवर्ष संस्कृत दिवस मनाने का परिपत्र जारी किया। आप जानते हैं कि डॉ. राव स्वयं उच्चकोटि के शिक्षाविद् तथा प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं के जानकार थे। अत: उन्होंने संस्कृत दिवस के लिए श्रावणी पूर्णिमा यानी रक्षाबंधन के दिन का चुनाव किया। इसके पीछे जो कारण था, उसका संबंध भारत और उसके शाश्वत धर्म से है। मनुस्मृति के अनुसार ‘श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वा उपाकृत्य यथाविधि:।’ यह दिन आदिकाल से गुरुकुलों में वेदाध्ययन प्रारंभ करने का रहा है। प्राचीन काल में इसी दिन से शिक्षण सत्र आरंभ होता था। अत: डॉ. राव ने इस पावन दिन को ही संस्कृत दिवस के रूप में चुना ताकि संस्कृत परंपरा में यह दिन अक्षुण्ण रह सके।
कम ही लोग इस ओर ध्यान देते हैं कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने वेदों का अध्ययन किया था। उनका मानना था कि भारत में महान सभ्यता रही है। संस्कृत उसकी वाहक है। उसमें धर्म और दर्शन का मेल है। संस्कृत में छिपे मूल्य इस परिमाण में भी आंके जा सकते हैं, जिनकी जरूरत आज हरेक राष्ट्र, समाज, धर्म, पंथ, परंपरा और भाषा को है। यूनेस्को ने 2006 में ऋग्वेद को सबसे पुराना लिखित दस्तावेज माना। इस हिसाब से उसकी भाषा संस्कृत, विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत सतानत सत्ता का सत्य है। इसका इतिहास किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। यह सनातन है, ठीक उसी तरह जैसे सनातन धर्म है। संस्कृत ने जो सत्य उद्घाटित किए, वे अब पूरी दुनिया में माने जा रहे हैं। 21 जून को मनाया गया विश्व योग दिवस इसका प्रमाण है। संस्कृत पूरी मानवता को जोडऩे का सामथ्र्य रखती है, क्योंकि वह किसी धर्म, राष्ट्र या जाति के बंधन में नहीं बांधी जा सकती।
क्या अब भी संस्कृत देश को उन्नति के रास्ते पर ले चल सकने में समर्थ है? इसका उत्तर ‘हां’ अथवा ‘ना’ नहीं हो सकता। संस्कृत इस मायने में धर्मगत है। उसका सामाजिक रूपांतरण यदि हो सकता है तो उससे ही यह तय होगा कि संस्कृत में कितनी ऊर्जा शेष है। वह समाज को ऊर्जावान बनाने में समर्थ है। संस्कृत के उपकरण वही हैं जो परंपरागत चले आ रहे हैं। संस्कृत भारती जैसी संस्थाओं ने उसके प्रयोग जगह-जगह किए हैं। जहां-जहां प्रयोग हुए हैं, नतीजे दिखने लगे हैं। लेकिन यह भी सही है कि संस्कृत को उस मकडज़ाल से भी उबरना होगा, जो पुरातनपंथियों ने उसके इर्द-गिर्द बुन रखा है।
संस्कृत के बारे में दो दृष्टिकोण हैं। एक समूह वह है जो संस्कृत में सब ठीक देखता है क्योंकि यह उनकी रोजी-रोटी का प्रश्न है। इनका मानना है कि संस्कृत सतानत है लेकिन ऐसे भाषण का प्रभाव वक्ता के बोलने तक ही सीमित रहता है। दूसरा वर्ग उनका है जिन्हें संस्कृत में सिर्फ दोष ही नजर आते हैं। वे अपनी दुर्दशा का दोष संस्कृत के माथे मढऩा चाहते हैं।
यह सही है कि आज संस्कृत उपेक्षित सी है। इसके बारे में घोर अज्ञान है। इसकी हर शाखा खुद तना बन गई। शाखाओं ने वृक्ष का रूप ले लिया और मूल मरता चला गया। अब इसके ठूंठ ही दिखाई पड़ते हैं। संस्कृत के संस्थान भारी राजनैतिक गतिविधियोंके अखाडे हैं, जहां के नेतृत्व में सार्वभौमिक सोच का नितांत अभाव है। संस्कृत की इस दशा के लिए संस्कृत के अपने लोग जिम्मेदार हैं। ऐसे में, सच्चे मायने में संस्कृत दिवस तभी होगा, जब संस्कृत के लिए हमारी कथनी और करनी में पूरी ईमानदारी हो!
- शास्त्री कोसलेन्द्रदास -
(लेखक राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
कम ही लोग इस ओर ध्यान देते हैं कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने वेदों का अध्ययन किया था। उनका मानना था कि भारत में महान सभ्यता रही है। संस्कृत उसकी वाहक है। उसमें धर्म और दर्शन का मेल है। संस्कृत में छिपे मूल्य इस परिमाण में भी आंके जा सकते हैं, जिनकी जरूरत आज हरेक राष्ट्र, समाज, धर्म, पंथ, परंपरा और भाषा को है। यूनेस्को ने 2006 में ऋग्वेद को सबसे पुराना लिखित दस्तावेज माना। इस हिसाब से उसकी भाषा संस्कृत, विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत सतानत सत्ता का सत्य है। इसका इतिहास किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। यह सनातन है, ठीक उसी तरह जैसे सनातन धर्म है। संस्कृत ने जो सत्य उद्घाटित किए, वे अब पूरी दुनिया में माने जा रहे हैं। 21 जून को मनाया गया विश्व योग दिवस इसका प्रमाण है। संस्कृत पूरी मानवता को जोडऩे का सामथ्र्य रखती है, क्योंकि वह किसी धर्म, राष्ट्र या जाति के बंधन में नहीं बांधी जा सकती।
क्या अब भी संस्कृत देश को उन्नति के रास्ते पर ले चल सकने में समर्थ है? इसका उत्तर ‘हां’ अथवा ‘ना’ नहीं हो सकता। संस्कृत इस मायने में धर्मगत है। उसका सामाजिक रूपांतरण यदि हो सकता है तो उससे ही यह तय होगा कि संस्कृत में कितनी ऊर्जा शेष है। वह समाज को ऊर्जावान बनाने में समर्थ है। संस्कृत के उपकरण वही हैं जो परंपरागत चले आ रहे हैं। संस्कृत भारती जैसी संस्थाओं ने उसके प्रयोग जगह-जगह किए हैं। जहां-जहां प्रयोग हुए हैं, नतीजे दिखने लगे हैं। लेकिन यह भी सही है कि संस्कृत को उस मकडज़ाल से भी उबरना होगा, जो पुरातनपंथियों ने उसके इर्द-गिर्द बुन रखा है।
संस्कृत के बारे में दो दृष्टिकोण हैं। एक समूह वह है जो संस्कृत में सब ठीक देखता है क्योंकि यह उनकी रोजी-रोटी का प्रश्न है। इनका मानना है कि संस्कृत सतानत है लेकिन ऐसे भाषण का प्रभाव वक्ता के बोलने तक ही सीमित रहता है। दूसरा वर्ग उनका है जिन्हें संस्कृत में सिर्फ दोष ही नजर आते हैं। वे अपनी दुर्दशा का दोष संस्कृत के माथे मढऩा चाहते हैं।
यह सही है कि आज संस्कृत उपेक्षित सी है। इसके बारे में घोर अज्ञान है। इसकी हर शाखा खुद तना बन गई। शाखाओं ने वृक्ष का रूप ले लिया और मूल मरता चला गया। अब इसके ठूंठ ही दिखाई पड़ते हैं। संस्कृत के संस्थान भारी राजनैतिक गतिविधियोंके अखाडे हैं, जहां के नेतृत्व में सार्वभौमिक सोच का नितांत अभाव है। संस्कृत की इस दशा के लिए संस्कृत के अपने लोग जिम्मेदार हैं। ऐसे में, सच्चे मायने में संस्कृत दिवस तभी होगा, जब संस्कृत के लिए हमारी कथनी और करनी में पूरी ईमानदारी हो!
- शास्त्री कोसलेन्द्रदास -
(लेखक राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
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