Friday, October 2, 2015

कोलकाता में संस्कृत विश्वविद्यालय

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कोलकाता में एक नया संस्कृत विश्वविद्यालय बनाने की तैयारी कर रही है। यदि यह विश्वविद्यालय स्थापित हो पाता है तो पूर्वी भारत में यह चौथा संस्कृत विश्वविद्यालय होगा। इससे पहले ओडिसा सरकार ने 1981 में जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय (पुरी), असम सरकार ने 2011 में कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत एवं प्राचीन अध्ययन विश्वविद्यालय (नलबारी) तथा राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान ने पुरी तथा अगरतला में संस्कृत अध्ययन एवं शोध केंद्र स्थापित किए हैं। 
 
पूरी दुनिया में संस्कृत भाषा व साहित्य के अध्ययन-अध्यापन में आज दो रूप प्रचलित हैं। पहला तरीका आधुनिक है। दूसरी धारा पारंपरिक कहलाती है। आधुनिक प्रणाली से संस्कृत उन विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है, जहां अलग से मात्र संस्कृत विभाग होते हैं। ये बीए और एमए की उपाधि के लिए संस्कृत पढ़ते-पढ़ाते हैं। यहां पाठ्यक्रम में विद्यार्थी संस्कृत के लगभग हर पक्ष को थोड़ा-बहुत छूता है। दूसरी धारा पारंपरिक है। इसमें संस्कृत की किसी भी एक विधा को पकडक़र उसमें गहनतम अध्ययन कर पारंगत होने का भाव है। यह जटिल शास्त्रों को संस्कृत माध्यम से पढ़ाने की सर्वप्राचीन पद्धति है। यहां शास्त्री-आचार्य की उपाधियां होती हैं। इस पद्धति से अध्ययन-अध्यापन केवल संस्कृत विश्वविद्यालयों में ही होता है। दोनों धाराओं के सोचने-विचारने और पढऩे-पढ़ाने में आकाश-पाताल का भेद है। 
देश में अभी 15 संस्कृत विश्वविद्यालय हैं। केंद्र सरकार के 3 और विभिन्न राज्य सरकारों के द्वारा स्थापित 12 संस्कृत विश्वविद्यालय हैं। इनमें वाराणसी का संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय निर्विवाद सबसे पुराना है। इसकी स्थापना ब्रिटिश राज के दौरान गर्वनर जॉनाथन डंकन ने 1791 ईस्वी में की थी, जो धीरे-धीरे आज के रूप में परिवर्तित हो गया। अब तो लगभग प्रांतों में स्वतंत्र संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित हैं। यह दुखद आश्चर्य जरूर है कि इनमें से अधिकतर विश्वविद्यालय या तो ‘वेंटीलेटर’ पर हैं या अपनी शैशवावस्था में ही जानलेवा ‘निमोनिया’ से पीडि़त हैं! कहीं नेतृत्व की संकुचित दृष्टि उन्हें बर्बाद कर रही है तो कहीं सरकारी राजनीति इन विश्वविद्यालयों पर भारी है। 
नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तो यह विश्वास जगा था कि अब संस्कृत के अच्छे दिन लौटेंगे। इस दिशा में केंद्र सरकार ने जो अभी तक जो प्रयास किए हैं, वे बहुत थोड़े हैं तो इधर, राज्य सरकारों द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों के हालात दिन-प्रतिदिन गिरते ही जा रहे हैं। इसका बड़ा कारण यह भी है कि सरकारों के नुमाइंदों को संस्कृत के वोट बैंक की कोई जरूरत नहीं है। वे जानते हैं कि उर्दू, सिंधी, गुजराती, पंजाबी या अन्य भाषाओं की तुनला में संस्कृत का कोई मजबूत वोट बैंक नहीं है। यदि है भी तो बहुत थोड़ा। इसका परिणाम यही हुआ कि भारत की राजनीति के 68 साल बाद भी संस्कृत भाषाई विकास के मामले में सबसे नीचे के पायदान पर हैं। संस्कृत को कभी संतोषप्रद स्थान नहीं मिला। केंद्र सरकार का एक भी स्वतंत्र संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित नहीं है, जिसकी मांग वर्षों से उठ रही है। याद कीजिए, 2002 में जब डॉ. मुरलीमनोहर जोशी मानव संसाधन विकास मंत्री थे तो उन्होंने केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय बनाने का वादा किया था। हालांकि यह सही है कि उनके समय तीन केंद्रीय संस्कृत संस्थानों को ‘मानित विश्वविद्यालय’ का दर्जा जरूर मिला। ऐसे में यह यक्ष प्रश्न सिर उठाए खड़ा है कि केंद्र के साथ राज्यों की सरकारें संस्कृत के पारंपरिक ज्ञान को बचाने के लिए क्या ठोस प्रयास कर रही हैं? यदि हां तो फिर संस्कृत की स्थिति लगातार बदतर क्यों होती जा रही है?
आज संस्कृत शिक्षा के बारे में एक धूमिल-सी धारणा है। इसकी शास्त्रीय परंपरा जो भी रही हो पर आम आदमी अब इसे पारंपरिक भाषा से अधिक नहीं मानता। संस्कृत की यह निजी समस्या है, जिसे अग्रणी विद्वान हल करेंगे। यह जरूरी है कि आज के दौर में संस्कृत के पढऩे-पढ़ाने को लेकर लोगों में भ्रम न रहे। प्रमाणिक रूप से लोगों को यह बताया जाए कि संस्कृत पारंपरिक ज्ञान की वाहक है। संस्कृत पढऩा भारत के भारत तत्व को बचाने जैसा है। संस्कृत पढ़े बगैर भारत को समझना मुश्किल है। वे सारे धर्म और संस्कृतियां जो भारत में जन्मी और पली-बढ़ी, मात्र संस्कृत भाषा ही उनकी शाश्वत कथा कहती है। संस्कृत भारत की धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मिसाल की अनूठी देन है क्योंकि यह सनातन है। 2006 में यूनेस्को की इस घोषणा के बाद कि ऋग्वेद मानव सभ्यता का सबसे पुराना जीवित लिखित दस्तावेज है, संस्कृत वैश्विक स्तर पर सबसे पुरानी भाषा बैठती है। इतिहास के काल विभाजन में संस्कृत प्राचीन की श्रेणी में आती है या पाषाण युग में, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। इतिहास की इस उब-चुब से जितना जल्दी हो सके संस्कृत को निकल जाना चाहिए। इससे दूर जाकर ही समझा जा सकेगा कि संस्कृत मात्र एक भाषा नहीं बल्कि एक जीवित परंपरा है, जिसे बचाने का भार आज के कर्णधारों पर है ताकि हमारी अगली पीढ़ी तक भी यह अमूल्य निधि पहुंच सके ।
संस्कृत के उपकरण वे ही हैं जो विश्वकल्याण के लिए कभी ऋषियों ने निर्धारित किए थे। वे उपकरण हमें आज भी सभ्य होने का संदेश देते हैं। मनुष्य होने का मर्म समझाते हैं। वे तत्व सर्वमान्य हैं। वे किसी पंथ, परंपरा या विधान के अनुगामी नहीं हैं। भला, ‘सत्यमेव जयते’ जैसे अमर वाक्य का विकल्प किसी के पास है, कोई बताए? यह शाश्वत सिद्धांत भला किस धर्म, पंथ, परंपरा या राष्ट्र को स्वीकृत नहीं है? इससे स्पष्ट है कि संस्कृत सनातन सत्ता का सत्य है। 
आज संस्कृत शिक्षा के बारे में घोर अज्ञान है। इसकी हर शाखा ने वृक्ष का रूप ले लिया है। मूल मरता चला गया। इसे नया जीवन देने का दायित्व संस्कृत के नए आचार्यों पर है। संस्कृत ने जो ‘सत्य’ स्थापित किए, वे अब पूरी दुनिया में माने जा रहे हैं। इसका फैलाव बहुत बड़ा था लेकिन फिलहाल उसके खंडहर ही दिखते हैं। इन्हें आबाद करना अगर संभव हो सका तो यह सामाजिक समरसता का नया आंदोलन खड़ा कर सकती है।
नरेंद्र मोदी अगर संस्कृत की ऐतिहासिक एवं आधुनिक महिमा को स्थापित करने में सफल होते हैं तो वे सच्चे मायने में राष्ट्रवादी होने के अपने दायित्व को चरितार्थ कर सकेंगे। इसके लिए उन्हें संस्कृत शिक्षा और संस्कृत विश्वविद्यालयों को गंभीरता से लेना होगा। संस्कृत को मुख्यधारा से जोडऩे की मजबूत पहल वैसी ही करनी होगी जैसी 1956 में पं. जवाहरलाल नेहरू और 2014 में डॉ. मनमोहन सिंह ने प्रथम और द्वितीय संस्कृत आयोग बनाकर की थी। इन दोनों आयोगों की रिपोर्टों से संस्कृत अध्ययन की नई विधि और उसकी तात्कालिक स्थिति तय हुई है। सरकार को यह समझना चाहिए कि यदि किसी भी रूप में युवाओं के बीच संस्कृत बची रही तो ही सर्वाधिक पुरातन होने का दंभ भरने वाली भारत की परंपरा अक्षुण्ण रूप में जीवित रह पाएगी क्योंकि भारत की प्रतिष्ठा के दो ही कारण हैं, संस्कृत और संस्कृति-भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा। 

शास्त्री कोसलेन्द्रदास
सहायक आचार्य
राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर
मो. 92143 16999

No comments:

Post a Comment