बैंकॉक में आयोजित सोलहवें विश्व संस्कृत सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संस्कृत के सबसे पुरानी जीवित भाषा होने और अनेक मानवीय समस्याओं का हल संस्कृत से होने का दावा क्या किया, बुद्धिजीवियों के एक धड़े को अपच हो गई। कोई समझाए तो सही कि स्वराज ने आखिर गलत क्या कहा! सिर्फ विरोध के लिए आलोचना करना कहां तक सही है? असल में इन तथाकथित बुद्धिजीवियों की समस्या संस्कृत नहीं, बल्कि कुछ और है! वे संस्कृत को भारतीय परंपरा की स्रोत भाषा मानते हुए इसे हिंदूवाद के जाल में फंसाना चाहते हैं। जहां कहीं भारत और उसके भारत तत्व का समावेश है, उससे उन्हें स्वाभाविक चिढ़ है। यदि संस्कृत और उसके साहित्य को वे जरा भी जान-पढ़ लें तो उन्हें संस्कृत का महत्व समझ आ जाए।
सुषमा स्वराज के वक्तव्य का रिश्ता संविधान सभा से जुड़ा है। 14 सितंबर, 1949 को याद कीजिए। इसी दिन डॉ. भीमराव अंबेडकर और प्रो. नाजिरुद्दीन अहमद ने संस्कृत को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का सुझाव संविधान सभा को दिया था। इस सलाह के पीछे उन दोनों का एक खास तर्क था कि राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने की पात्रता सारी भारतीय भाषाओं की ‘मां’ में ही हो सकती है। बंगाल से निर्वाचित दलित और मुस्लिम लीग के इन नेताओं के जेहन में इसके पीछे यही मंशा थी कि कहीं स्वतंत्र भारत का भाषाई आधार पर बंटवारा न हो जाए। कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत को भाषाई एकसूत्र में पिरोने का काम संस्कृत ही कर सकती है। किसी भी भारतीय के लिए संस्कृत को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकारने में कोई कठिनाई न तो पहले थी और न ही आज होगी। हकीकत में सारी भारतीय भाषाएं संस्कृत का पड़ोस हैं। ये भाषाएं हिमालय से निकली नदियों की भांति अपना स्रोत संस्कृत में खोजती हैं। जब संस्कृतरूपी हिमालय पिघलता है तो भारतीय भाषाई नदियां लबालब होती हैं। सारे भारत की भाषाएं संस्कृत पर वैसे ही टिकी हैं, जैसे किसी बेल का सहारा कोई वृक्ष हो।
कम ही लोग इस ओर ध्यान देते हैं कि डॉ. अंबेडकर ने खुद वेदों का अध्ययन किया था। उन्होंने एक निष्कर्ष निकाला कि भारत में एक महान सभ्यता रही है। संस्कृत उसकी वाहक है। उसमें धर्म और दर्शन का मेल है। वहां ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग साध्य और साधन, दोनों रूपों में मिलता है, लेकिन पद्धति कभी मंजिल नहीं होती। पद्धति की कट्टरताएं टकराव पैदा करती हैं। इस टकराव का सबसे बड़ा समाधान संस्कृत के पास है, क्योंकि उसका यह सिद्धांत है कि ‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’ अर्थात जो तुम्हें अपने लिए ठीक न लगे, उसे दूसरों के लिए न करो। संस्कृत में छिपे मूल्य इस परिमाण में आंके जा सकते हैं, जिनकी जरूरत आज हरेक राष्ट्र, समाज, धर्म, पंथ, परंपरा और भाषा को है।
2006 में यूनेस्को ने मानव सभ्यता का सबसे पुराना लिखित दस्तावेज ऋग्वेद को माना। स्पष्ट है कि जब ऋग्वेद सर्वप्राचीन ग्रंथ है तो इस हिसाब से उसकी भाषा संस्कृत, विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत सतानत सत्ता का सत्य है। इसका इतिहास किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। यह सनातन है, ठीक उसी तरह जैसे सनातन धर्म है। भला सनातन धर्म का इतिहास कोई बता सकता है कि उसका कब, कहां और कैसे उद्भव हुआ? संस्कृत ने जो सत्य उद्घाटित किए, वे अब पूरी दुनिया में माने जा रहे हैं। 21 जून को मनाया गया विश्व योग दिवस इसका प्रमाण है। संस्कृत पूरी मानवता को जोडऩे का सामथ्र्य रखती है, क्योंकि वह किसी धर्म, राष्ट्र या जाति के बंधन में नहीं बांधी जा सकती। जैसे सूर्य-चंद्रमा किसी एक के नहीं, सभी के हैं ठीक वैसे ही संस्कृत सारी मानव जाति के लिए है। यह जरूर है कि भारत में संस्कृत के लोकभाषा होने की जब बात चलती है तो यह समझ लेना चाहिए कि मुगलों के आने के बाद भारतीय संस्कृति में जो अवरोध आया, उसने अपनी ‘काली छाया’ अभी तक बना रखी है।
प्रश्न यह है कि क्या अब भी संस्कृत में दम बचा है। जो देश को उन्नति के रास्ते पर ले चल सकने में समर्थ है? इसका जबाव ‘हां’ अथवा ‘ना’ में नहीं हो सकता। संस्कृत इस मायने में धर्मगत है। उसका सामाजिक रूपांतरण यदि हो सकता है तो उससे ही यह तय होगा कि संस्कृत में ऊर्जा शेष है। वह पूरे समाज को ऊर्जावान बनाने में समर्थ है। संस्कृत के उपकरण वही हैं जो वेद परंपरा से चले आ रहे हैं। वे लोगों को आस्थावान बनने की प्रेरणा दे रहे हैं। संस्कृति का मर्म समझा रहे हैं। संस्कृत भारती जैसी संस्थाओं ने उसके प्रयोग जगह-जगह किए हैं। जहां-जहां सफल प्रयोग हुए हैं, नतीजे भी दिखने लगे हैं। लेकिन यह भी सही है कि संस्कृत को उस व्यामोह से भी उबरना होगा, जो पुरातनपंथियों ने बना रखा है। उसे अपने आलोचकों के बंधन से मुक्त रहना होगा।
संस्कृत के बारे में दो नजरिये हैं। एक वर्ग वह है जो संस्कृत में सबकुछ ठीक ही देखता है। इस वर्ग की रोजी-रोटी संस्कृत से चलती है। उनका तर्क है कि संस्कृत सतानत है, लेकिन ऐसे भाषण का प्रभाव उस सभा तक ही सीमित रहता है जब तक वक्ता बोलता रहता है। दूसरा समूह उन लोगों का है जिन्हें संस्कृत में दोष ही नजर आते हैं। वे गली के कीचड़-कादे और धूल-मिट्टी को संस्कृत के माथे मढऩा चाहते हैं। ऐसे में वे संस्कृत की व्याकरण तक को ललकार देते हैं। परंतु उन्हें समझना चाहिए कि इस मजबूत व्याकरण के कारण ही संस्कृत विश्व की एकमात्र ऐसी भाषा
भी है जो पिछले लगभग 8 हजार वर्षों से एक ही रूप में लिखी-पढ़ी-बोली जा रही है।
हां, यह जरूर है कि आज संस्कृत उपेक्षित सी है। इसके बारे में अज्ञान है। इसकी बड़ी भारी विडंबना यह है कि इसकी हर शाखा खुद तना बन गई। शाखाओं ने वृक्ष का रूप ले लिया और मूल मरता चला गया। फिलहाल उसके खंडहर ही दिखाई पड़ते हैं। संस्कृत की इस दुर्दशा के लिए सरकार की बजाय संस्कृत के भीतरी लोग जिम्मेदार हैं। इन्होंने संस्कृत की आड़ में जाति, धर्म और संप्रदायों के स्वार्थ सिद्ध किए, लेकिन इसमें संस्कृत का क्या दोष? हकीकत में संस्कृत तो गंगा है, जो वाल्मीकि और व्यास को पैदा करती है। संस्कृत का यही चरित्र इसका भविष्य में कल्याण करेगा। संस्कृत जब भी आबाद होगी तो सामाजिक समरसता के आंदोलन का नया आकार लेगी, जिसका उद्घोष यही होगा-सर्वे भवन्तु सुखिन:।
शास्त्री कोसलेन्द्रदास
(लेखक राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
सुषमा स्वराज के वक्तव्य का रिश्ता संविधान सभा से जुड़ा है। 14 सितंबर, 1949 को याद कीजिए। इसी दिन डॉ. भीमराव अंबेडकर और प्रो. नाजिरुद्दीन अहमद ने संस्कृत को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का सुझाव संविधान सभा को दिया था। इस सलाह के पीछे उन दोनों का एक खास तर्क था कि राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने की पात्रता सारी भारतीय भाषाओं की ‘मां’ में ही हो सकती है। बंगाल से निर्वाचित दलित और मुस्लिम लीग के इन नेताओं के जेहन में इसके पीछे यही मंशा थी कि कहीं स्वतंत्र भारत का भाषाई आधार पर बंटवारा न हो जाए। कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत को भाषाई एकसूत्र में पिरोने का काम संस्कृत ही कर सकती है। किसी भी भारतीय के लिए संस्कृत को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकारने में कोई कठिनाई न तो पहले थी और न ही आज होगी। हकीकत में सारी भारतीय भाषाएं संस्कृत का पड़ोस हैं। ये भाषाएं हिमालय से निकली नदियों की भांति अपना स्रोत संस्कृत में खोजती हैं। जब संस्कृतरूपी हिमालय पिघलता है तो भारतीय भाषाई नदियां लबालब होती हैं। सारे भारत की भाषाएं संस्कृत पर वैसे ही टिकी हैं, जैसे किसी बेल का सहारा कोई वृक्ष हो।
कम ही लोग इस ओर ध्यान देते हैं कि डॉ. अंबेडकर ने खुद वेदों का अध्ययन किया था। उन्होंने एक निष्कर्ष निकाला कि भारत में एक महान सभ्यता रही है। संस्कृत उसकी वाहक है। उसमें धर्म और दर्शन का मेल है। वहां ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग साध्य और साधन, दोनों रूपों में मिलता है, लेकिन पद्धति कभी मंजिल नहीं होती। पद्धति की कट्टरताएं टकराव पैदा करती हैं। इस टकराव का सबसे बड़ा समाधान संस्कृत के पास है, क्योंकि उसका यह सिद्धांत है कि ‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्’ अर्थात जो तुम्हें अपने लिए ठीक न लगे, उसे दूसरों के लिए न करो। संस्कृत में छिपे मूल्य इस परिमाण में आंके जा सकते हैं, जिनकी जरूरत आज हरेक राष्ट्र, समाज, धर्म, पंथ, परंपरा और भाषा को है।
2006 में यूनेस्को ने मानव सभ्यता का सबसे पुराना लिखित दस्तावेज ऋग्वेद को माना। स्पष्ट है कि जब ऋग्वेद सर्वप्राचीन ग्रंथ है तो इस हिसाब से उसकी भाषा संस्कृत, विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत सतानत सत्ता का सत्य है। इसका इतिहास किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। यह सनातन है, ठीक उसी तरह जैसे सनातन धर्म है। भला सनातन धर्म का इतिहास कोई बता सकता है कि उसका कब, कहां और कैसे उद्भव हुआ? संस्कृत ने जो सत्य उद्घाटित किए, वे अब पूरी दुनिया में माने जा रहे हैं। 21 जून को मनाया गया विश्व योग दिवस इसका प्रमाण है। संस्कृत पूरी मानवता को जोडऩे का सामथ्र्य रखती है, क्योंकि वह किसी धर्म, राष्ट्र या जाति के बंधन में नहीं बांधी जा सकती। जैसे सूर्य-चंद्रमा किसी एक के नहीं, सभी के हैं ठीक वैसे ही संस्कृत सारी मानव जाति के लिए है। यह जरूर है कि भारत में संस्कृत के लोकभाषा होने की जब बात चलती है तो यह समझ लेना चाहिए कि मुगलों के आने के बाद भारतीय संस्कृति में जो अवरोध आया, उसने अपनी ‘काली छाया’ अभी तक बना रखी है।
प्रश्न यह है कि क्या अब भी संस्कृत में दम बचा है। जो देश को उन्नति के रास्ते पर ले चल सकने में समर्थ है? इसका जबाव ‘हां’ अथवा ‘ना’ में नहीं हो सकता। संस्कृत इस मायने में धर्मगत है। उसका सामाजिक रूपांतरण यदि हो सकता है तो उससे ही यह तय होगा कि संस्कृत में ऊर्जा शेष है। वह पूरे समाज को ऊर्जावान बनाने में समर्थ है। संस्कृत के उपकरण वही हैं जो वेद परंपरा से चले आ रहे हैं। वे लोगों को आस्थावान बनने की प्रेरणा दे रहे हैं। संस्कृति का मर्म समझा रहे हैं। संस्कृत भारती जैसी संस्थाओं ने उसके प्रयोग जगह-जगह किए हैं। जहां-जहां सफल प्रयोग हुए हैं, नतीजे भी दिखने लगे हैं। लेकिन यह भी सही है कि संस्कृत को उस व्यामोह से भी उबरना होगा, जो पुरातनपंथियों ने बना रखा है। उसे अपने आलोचकों के बंधन से मुक्त रहना होगा।
संस्कृत के बारे में दो नजरिये हैं। एक वर्ग वह है जो संस्कृत में सबकुछ ठीक ही देखता है। इस वर्ग की रोजी-रोटी संस्कृत से चलती है। उनका तर्क है कि संस्कृत सतानत है, लेकिन ऐसे भाषण का प्रभाव उस सभा तक ही सीमित रहता है जब तक वक्ता बोलता रहता है। दूसरा समूह उन लोगों का है जिन्हें संस्कृत में दोष ही नजर आते हैं। वे गली के कीचड़-कादे और धूल-मिट्टी को संस्कृत के माथे मढऩा चाहते हैं। ऐसे में वे संस्कृत की व्याकरण तक को ललकार देते हैं। परंतु उन्हें समझना चाहिए कि इस मजबूत व्याकरण के कारण ही संस्कृत विश्व की एकमात्र ऐसी भाषा
भी है जो पिछले लगभग 8 हजार वर्षों से एक ही रूप में लिखी-पढ़ी-बोली जा रही है।
हां, यह जरूर है कि आज संस्कृत उपेक्षित सी है। इसके बारे में अज्ञान है। इसकी बड़ी भारी विडंबना यह है कि इसकी हर शाखा खुद तना बन गई। शाखाओं ने वृक्ष का रूप ले लिया और मूल मरता चला गया। फिलहाल उसके खंडहर ही दिखाई पड़ते हैं। संस्कृत की इस दुर्दशा के लिए सरकार की बजाय संस्कृत के भीतरी लोग जिम्मेदार हैं। इन्होंने संस्कृत की आड़ में जाति, धर्म और संप्रदायों के स्वार्थ सिद्ध किए, लेकिन इसमें संस्कृत का क्या दोष? हकीकत में संस्कृत तो गंगा है, जो वाल्मीकि और व्यास को पैदा करती है। संस्कृत का यही चरित्र इसका भविष्य में कल्याण करेगा। संस्कृत जब भी आबाद होगी तो सामाजिक समरसता के आंदोलन का नया आकार लेगी, जिसका उद्घोष यही होगा-सर्वे भवन्तु सुखिन:।
शास्त्री कोसलेन्द्रदास
(लेखक राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
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