श्रीश्री रविशंकर की संस्था 'आर्ट ऑफ लिविंग' के विश्व सांस्कृतिक महोत्सव को 'श्रीहीन ' करने की तमाम साजिशें नाकाम हुईं। यमुना के किनारे भारत के धर्म, संस्कृति और संस्कारों का अनहदनाद हो रहा है। 122 देशों से आए हजारों कलाकार वैदिक ऋचाओं, शास्त्रीय नृत्य व वाद्य संगत पर झूम रहे हैं। लाखों लोग अपने देश और धर्म को भूलकर 'सीताराम-सीताराम ' का भावपूर्ण कीर्तन कर रहे हैं। यह कोई महोत्सव नहीं, बल्कि भारत के शाश्वत धर्म, संस्कृति और सनातन संस्कारों की श्रेष्ठता और पूरी दुनिया में इसकी स्वीकार्यता का एक प्रतीक है। कदाचित यही प्रतीक इस महोत्सव के विरोध का मूल कारण है।
यमुना और पर्यावरण के नाम पर श्रीश्री के कार्यक्रम का विरोध करने वाले तब तो यमुना के बारे में एक शब्द भी नहीं बोले जब सत्ता की नाक तले ही यह गंदे नाले में तब्दील हो गई। तब वे शायद इसलिए नहीं बोले कि यमुना का पौराणिक महत्व है, जिससे वह भारतीय परंपरा की प्रतिनिधि नदी घोषित होती है। 'कन्हैया' के गीत गाने वाले कान्हा की 'कालिन्दी ' की सुध लेते तो यह श्रेष्ठ जल प्रवाह के रूप में आज तक बह रही होती, लेकिन वे तो ऐसे मौके तलाशते हैं जब भारत या उसकी सहस्नाब्दियों पुरानी परंपरा के किसी प्रचारक कार्यक्रम में रोड़े अटकाने हों। इस कार्यक्रम से अपनी राजनीतिक क्षुद्रताओं की पूर्ति करने में लगे उन तथाकथित बुद्धिजीवियों का आकस्मिक यमुना प्रेम स्पष्ट करता है कि उन्हें हर तरह से उन कार्यक्रमों का विरोध ही करना है, जिनसे भारतीय परंपरा मजबूत होती है।
आज की मूल समस्या क्या है? यह मनुष्य के भीतर शील और अच्छाई का संकट है। ऐसा नहीं है कि अच्छाई नहीं है। अच्छाई है, लेकिन यह अक्षम और अपर्याप्त है। इस अच्छाई को सक्षम और पर्याप्त कैसे किया जाए, इसी के प्रयास धर्मगुरुओं के ऐसे आध्यात्मिक आयोजनों से होता है। वहां पर अच्छाई बांटने की कोई सीमारेखा तय नहीं है। वे दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सार्वभौम जीवन दृष्टि की अच्छाई बांटते हैं। इसीलिए धर्मगुरुओं के सनातन सिद्धांत जाति, प्रांत, भाषा और राष्ट्र से ऊपर उठकर लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और कला संबंधी एक धरातल पर ला खड़ा कर देते हैं। विश्व सांस्कृतिक महोत्सव इसी की एक बानगी है। ऐसे महोत्सव विश्व संस्कृति के रंगमंच पर भारतीयता की अमिट छाप तो छोड़ते ही हैं, परस्पर दुराव, अलगाव और द्वेष को भी समाप्त करते हैं। जन-चित्त दिन पर दिन हिंसामुखी होता जा रहा है। मनुष्य के स्थान पर पशुत्व प्रधान शक्ति सक्रिय हो रही है। जहां-तहां अविवेकी भीड़ ही मानव समाज को सर्वाधिक नुकसान पहुंचा रही है। ऐसे में हमारे भीतर सोई अध्यात्म शक्ति यदि जाग उठे तो वह जनशक्ति समूचे विश्व का बिना किसी भेदभाव के कल्याण करेगी।
भारत में एक महान सभ्यता रही है। संत उसके वाहक हैं। ये समय-समय पर लोगों के अवचेतन में अध्यात्म को पिरोते रहते हैं। समाज में अंतर्निहित अच्छाई का बोध कराने के लिए ये संत लोगों को समूह रूप में इकट्ठा करके उन्हें सक्षम आत्मबोध कराते हैं। ऐसा नहीं है कि इस तरह का धार्मिक आयोजन पहली बार ही हो रहा है। भारत में तो निश्चित अंतराल पर होने वाले कुंभ मेले लोगों के परस्पर मिलने और संवाद करने के सुदृढ़ माध्यम रहे हैं। यह अलग बात है कि श्रीश्री ने इस आयोजन में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल इसे आधुनिक बना दिया। फिर भी ऐसे आयोजन मन के बढ़ते दरिद्रीकरण को रोकने में रामबाण सिद्ध होते हैं। इनका प्रभाव हमारी नई पीढ़ी के नैतिक चरित्र और मानवीय प्रकृति पर पड़ता है। जहां आज का नया मनुष्य अधिक उपार्जन या अधिक क्षमता को ही ईश्वर मान बैठा है, वहां ऐसे आयोजन विश्व संस्कृति को दूर तक प्रभावित करते हैं।
तथाकथित बुद्धिजीवियों का यह ब्रह्मवाक्य है कि जो विज्ञान सम्मत नहीं, वह असत्य है। इस असत्य से उन्होंने धर्म और अध्यात्म को भी जोड़ दिया। इस नासमझी से यह नुकसान हुआ कि भारतीय मूल्यों के प्रति आधुनिक संस्कृति न केवल उदासीन है, बल्कि एक सीमा तक असहिष्णु और हिंसक भी है। इस असहिष्णुता में वे यह भूल जाते हैं कि जिस संस्कृति को नीचा दिखाकर वे अपनी आधुनिकता दर्शा रहे हैं, उसी संस्कृति पर हमारी श्री, शोभा, सहजता और सच्चाई टिकी हुई है। लेकिन दुर्भाग्य से आज भारत की सारी व्यवस्था, अर्थ, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और साहित्य नवशिक्षित बुद्धिजीवियों के हाथों में है। ये जन्मत: भारतीय होते हुए भी मानसिक रूप से 'बाहरी ' हैं। तुष्टीकरण के लंबे राज की काली छाया इन सब पर गहरी छाई हुई है। चालू हवा के खिलाफ जाकर जब भी इस छाया को हटाने का कोई व्यक्ति या संगठन काम करेगा तो ये सूरज के उस उजाले को रोकने का भरसक प्रयास करेंगे। हाल के अनेक घटनाक्रमों में इसकी बानगी भी देखने को मिली।
श्रीश्री के कार्यक्रम पर उपजे विवाद के लिए एक हद तक खुद आर्ट ऑफ लिविंग भी जिम्मेदार है। इस कार्यक्रम का आयोजन यमुना के किनारे की बजाय कहीं और हो जाता तो क्या हो जाता? श्रीश्री को यह भी समझना चाहिए कि जिस धर्म का वे प्रचार कर रहे हैं उसकी अपनी मर्यादाएं और मान्यताएं हैं। यह आवश्यक है कि इतने बड़े आयोजन में इन मर्यादाओं और मान्यताओं का पूरा ध्यान रखा जाता। यदि ऐसा किया गया होता तो सोने पर सुहागा होता।
लेखक शास्त्री कोसलेंद्रदास, राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
यमुना और पर्यावरण के नाम पर श्रीश्री के कार्यक्रम का विरोध करने वाले तब तो यमुना के बारे में एक शब्द भी नहीं बोले जब सत्ता की नाक तले ही यह गंदे नाले में तब्दील हो गई। तब वे शायद इसलिए नहीं बोले कि यमुना का पौराणिक महत्व है, जिससे वह भारतीय परंपरा की प्रतिनिधि नदी घोषित होती है। 'कन्हैया' के गीत गाने वाले कान्हा की 'कालिन्दी ' की सुध लेते तो यह श्रेष्ठ जल प्रवाह के रूप में आज तक बह रही होती, लेकिन वे तो ऐसे मौके तलाशते हैं जब भारत या उसकी सहस्नाब्दियों पुरानी परंपरा के किसी प्रचारक कार्यक्रम में रोड़े अटकाने हों। इस कार्यक्रम से अपनी राजनीतिक क्षुद्रताओं की पूर्ति करने में लगे उन तथाकथित बुद्धिजीवियों का आकस्मिक यमुना प्रेम स्पष्ट करता है कि उन्हें हर तरह से उन कार्यक्रमों का विरोध ही करना है, जिनसे भारतीय परंपरा मजबूत होती है।
आज की मूल समस्या क्या है? यह मनुष्य के भीतर शील और अच्छाई का संकट है। ऐसा नहीं है कि अच्छाई नहीं है। अच्छाई है, लेकिन यह अक्षम और अपर्याप्त है। इस अच्छाई को सक्षम और पर्याप्त कैसे किया जाए, इसी के प्रयास धर्मगुरुओं के ऐसे आध्यात्मिक आयोजनों से होता है। वहां पर अच्छाई बांटने की कोई सीमारेखा तय नहीं है। वे दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सार्वभौम जीवन दृष्टि की अच्छाई बांटते हैं। इसीलिए धर्मगुरुओं के सनातन सिद्धांत जाति, प्रांत, भाषा और राष्ट्र से ऊपर उठकर लोगों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और कला संबंधी एक धरातल पर ला खड़ा कर देते हैं। विश्व सांस्कृतिक महोत्सव इसी की एक बानगी है। ऐसे महोत्सव विश्व संस्कृति के रंगमंच पर भारतीयता की अमिट छाप तो छोड़ते ही हैं, परस्पर दुराव, अलगाव और द्वेष को भी समाप्त करते हैं। जन-चित्त दिन पर दिन हिंसामुखी होता जा रहा है। मनुष्य के स्थान पर पशुत्व प्रधान शक्ति सक्रिय हो रही है। जहां-तहां अविवेकी भीड़ ही मानव समाज को सर्वाधिक नुकसान पहुंचा रही है। ऐसे में हमारे भीतर सोई अध्यात्म शक्ति यदि जाग उठे तो वह जनशक्ति समूचे विश्व का बिना किसी भेदभाव के कल्याण करेगी।
भारत में एक महान सभ्यता रही है। संत उसके वाहक हैं। ये समय-समय पर लोगों के अवचेतन में अध्यात्म को पिरोते रहते हैं। समाज में अंतर्निहित अच्छाई का बोध कराने के लिए ये संत लोगों को समूह रूप में इकट्ठा करके उन्हें सक्षम आत्मबोध कराते हैं। ऐसा नहीं है कि इस तरह का धार्मिक आयोजन पहली बार ही हो रहा है। भारत में तो निश्चित अंतराल पर होने वाले कुंभ मेले लोगों के परस्पर मिलने और संवाद करने के सुदृढ़ माध्यम रहे हैं। यह अलग बात है कि श्रीश्री ने इस आयोजन में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल इसे आधुनिक बना दिया। फिर भी ऐसे आयोजन मन के बढ़ते दरिद्रीकरण को रोकने में रामबाण सिद्ध होते हैं। इनका प्रभाव हमारी नई पीढ़ी के नैतिक चरित्र और मानवीय प्रकृति पर पड़ता है। जहां आज का नया मनुष्य अधिक उपार्जन या अधिक क्षमता को ही ईश्वर मान बैठा है, वहां ऐसे आयोजन विश्व संस्कृति को दूर तक प्रभावित करते हैं।
तथाकथित बुद्धिजीवियों का यह ब्रह्मवाक्य है कि जो विज्ञान सम्मत नहीं, वह असत्य है। इस असत्य से उन्होंने धर्म और अध्यात्म को भी जोड़ दिया। इस नासमझी से यह नुकसान हुआ कि भारतीय मूल्यों के प्रति आधुनिक संस्कृति न केवल उदासीन है, बल्कि एक सीमा तक असहिष्णु और हिंसक भी है। इस असहिष्णुता में वे यह भूल जाते हैं कि जिस संस्कृति को नीचा दिखाकर वे अपनी आधुनिकता दर्शा रहे हैं, उसी संस्कृति पर हमारी श्री, शोभा, सहजता और सच्चाई टिकी हुई है। लेकिन दुर्भाग्य से आज भारत की सारी व्यवस्था, अर्थ, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और साहित्य नवशिक्षित बुद्धिजीवियों के हाथों में है। ये जन्मत: भारतीय होते हुए भी मानसिक रूप से 'बाहरी ' हैं। तुष्टीकरण के लंबे राज की काली छाया इन सब पर गहरी छाई हुई है। चालू हवा के खिलाफ जाकर जब भी इस छाया को हटाने का कोई व्यक्ति या संगठन काम करेगा तो ये सूरज के उस उजाले को रोकने का भरसक प्रयास करेंगे। हाल के अनेक घटनाक्रमों में इसकी बानगी भी देखने को मिली।
श्रीश्री के कार्यक्रम पर उपजे विवाद के लिए एक हद तक खुद आर्ट ऑफ लिविंग भी जिम्मेदार है। इस कार्यक्रम का आयोजन यमुना के किनारे की बजाय कहीं और हो जाता तो क्या हो जाता? श्रीश्री को यह भी समझना चाहिए कि जिस धर्म का वे प्रचार कर रहे हैं उसकी अपनी मर्यादाएं और मान्यताएं हैं। यह आवश्यक है कि इतने बड़े आयोजन में इन मर्यादाओं और मान्यताओं का पूरा ध्यान रखा जाता। यदि ऐसा किया गया होता तो सोने पर सुहागा होता।
लेखक शास्त्री कोसलेंद्रदास, राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
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